‘ए कैरोल ऑफ हिम’ अंधेरे और उजाले के फर्क को तलाशता हुआ उपन्यास

बिलासपुर. पिछले दिनों एक उपन्यास, ‘फिलोसफिकल फिक्षन‘ कैटेगरी में, ईविंसपब पब्लिशिग, चेन्नई से प्रकाशित हुआ है। वैसे तो 177 पृष्ठों के इस उपन्यास का नाम । A Carol of him हैं, लेकिन उपशीर्षक इसे एक ऐसी अनंत यात्रा बताया गया हैं जो कही नहीं जाती, शीर्षक और उपशीर्षक पर जब हम संयुक्त रूप से ध्यान देते हैं तो इनका अन्तर्विरोध हमें चैंकाता हैं। ‘‘कैरोल‘‘ अर्थात क्रिसमस के पावन अवसर पर गाये जाने वाले गीत और भजन जहां अपने असंदिग्ध गंतव्य – प्रभु यीशु – की तरफ जाते है वहां उपन्यास में नायिका ‘‘कैरोल‘‘ के साथ की गई अपनी यात्रा को लेखिका ने गंतव्य विहीन यात्रा ठहराया है। ऐसी यात्रा अनंत यात्रा ही होगी।
यह अन्तर्विरोध अर्थपूर्ण तो हैं ही, साथ ही उपन्यास के कथ्य के गुंफन को समझने में सहायक भी हैं। इस उपन्यास की नायिका जिन नैतिक और आध्यात्मिक प्रश्नो का उत्तर तलशने की कोशिश अपने जीवन में करती हैं उन प्रश्नों ने अवश्य एक लंबी यात्रा पूरी की हैं, क्योकि वे हजारों वर्षों से मानव की चेतना की विकास यात्रा में चुनौती की तरह साथ बने हुए हैं लेकिन चूंकि इन नैतिक और आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर अब तक नहीं मिल सके हैं इसलिए इस लंबी यात्रा को कहीं नहीं पहुंचने वाली यात्रा कहना भी सार्थक हैं।
हमारे चौंकाने और आश्चर्यचकित होने का सिलसिला तब और अधिक आगे बढ़ जाता है जब हम यह जानते हैं कि अंधेरे और उजाले की शक्तियों के द्वंद्व का मैदान बने मनुष्य के द्विविध जीवन के दोलनों कर्म और संकल्प की स्वतंत्रता तथा नियति के दुर्निवार पाष की जकड़न, शुभ और अशुभ की परिभाषओं की सापेक्षिकता और शक्तिशाली के औचित्यपूर्ण भी हो जाने की छाया में शैतान और ईश्वर के मिटते हुए भेद का चित्रण करने वाले इस उपन्यास की लेखिका त्विशा, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर नगर के एक हाॅयर सेकण्डरी स्कूल में पढ़ रही मात्र 16 वर्ष की किशोरी हैं।
हमारी सनातन परम्परा में, जीवन का लक्ष्य, मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करना नहीं हैं हम तो जीवन को ‘‘मोक्ष‘‘ प्राप्त करने का साधन या अवसर मानते हैं। ‘‘मोक्ष‘‘ तब मिलता है जब हम निस्त्रैगुण्य हो जाते हैं। तमोगुण और रजोगुण से पार तो चले ही जाते है, सत्वगुण से भी निवृत्ति पा लेते है।
इसलिए परमात्मा के मुकाबले, अशुभ और अंधेरे की शक्तियों के स्वामी ‘‘शैतान‘‘ के ठोस और संभवतः अमर अस्तित्व की अवधारणा हमारी संस्कृति में नहीं मिलती हैं। लेकिन इब्राहिमी धर्मों में यह आख्यान विविध रूपों में मौजूद हैं। चूंकि त्विशा का यह उपन्यास यू एस ए की पृष्ठभूमि में रचा गया है और नायिका कैरोल के परामर्शदाता द्वय – फ्रिटोफर और एबीगोर, उजाले और अंधेरे की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते है तथा स्वयं कैरोल इनके बीच निर्णय लेने की स्वतंत्र इच्छाशक्ति की तलाश करती हुई किसी अस्तित्ववादी नायिका की तरह दिखती है, इसलिए इब्राहिमी धर्मों का वह आख्यान इस उपन्यास को डी-कोड करने की दृश्टि से महत्वपूर्ण हो जाता हैं। इस पूरे परिपेक्ष्य को लेते हुए जब हम त्विशा के उपन्यास में लौटते हैं तो हमें वहाॅ इस प्रश्न का सामना करना पड़ता है कि फ्रिस्टोफर और एबीगोर के द्वारा बताए गये रास्तों के बीच डोलती कैरोल को क्या अपनी इच्छा अपने संकल्प, अपने निर्णय या अपने विवेक के अनुसार चलने की स्वतंत्रता है या मिल सकती है? दरअसल यह सवाल कैरोल तक ही सीमित नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य के संदर्भ में यह पूछा जा सकता है कि इस ‘‘दिए गए विशव ‘‘ में उसे कितनी स्वतंत्रता प्राप्त है ? क्या ऐसा नहीं हैं कि कभी अशुभ के ठेकेदार तो कभी शुभ के ठेकेदार उसके निर्णय की स्वतंत्रता को छीनते रहते हैं ? मनुष्य के जीवन को ष्वेत या श्याम की विशुद्ध सारणियों में रख कर नहीं समझा जा सकता क्योंकि वह ‘‘ग्रे एरिया‘‘ में बसा हुआ हैं।
क्या यह ‘‘ग्रे एरिया‘‘ ही वह स्पेस नहीं है जहाॅ न ईश्वर पूरी तरह मौजूद है न ही शैतान क्या यही मनुष्य की पूरी तरह अपनी जगह नहीं हैं ? क्या इसी ‘‘स्पेस‘‘ में उसे अपनी स्वतंत्रता को पाने की अधिकतम संभावना नहीं मिलती है ?
मनुष्यत्व के इस ‘‘धूसरपन‘‘ केा पूरी मार्मिकता और सम्पूर्णता में उकेर पाना ही शायद, किसी रचना की कलात्मक फ्रेस्मुक्ता का मानदंड हैं। इस उपन्यास में यह तब घटित होता है जब एबीगोर जैसे किसी को बचाने के प्रयास में हुए कार एक्सीडेंट में मरती हुई कैरोल, अपने अंतिम क्षणों में यह महसूस करती हैं कि ष्वेत परिधानधारी फ्रिस्टोफर उसकी ओर हाथ बढ़ाए हुए हैं। एक ओर वह एबीगोर को बचाकर आयी है और दूसरी तरफ फ्रिस्टोफर के आव्हान को भी महसूस कर रही हैं लेकिन वह हैं उस जगह पर जो संभवतः उसकी अपनी जगह हैं ….. ‘‘दोनों के बीच‘‘ …… मानवता की जगह पर!
त्विशा ने उपन्यास के अंतिम पृष्ठों में लिखा हैं शैतान तभी तक बुरा प्रतीत होता हैं जब तक हम उसका पक्ष नहीं जान लेते हैं।
क्या यही बात ईश्वर के विषय में सत्य नहीं है ? ‘महाभारत‘ में कृष्ण जब दुर्योधन को धर्म-अधर्म विशयक उपदेश देते हैं तो दुर्योधन उनसे कहता है –
जनामि धर्मम न च मे प्रवृत्तिः,
जानात्यधर्मम न च मे निवृत्तिः,
त्वया ऋशिकेष हृदि स्थितेन,
यथा नियुक्तोहिम तथा करोमि।
अर्थात-हे कृष्ण (ऋशिकेश) मैं धर्म को जानता हूॅ पर उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाता, मैं अधर्म को भी जानता हूॅ पर उससे निवृत्त नहीं हो पाता। तुम्हीं मेरे हृदय में वास करते हो, जिन कार्यों को करने की प्रेरणा देते हो उन्हीं कार्यों को मैं करता हॅॅू।
बलिका से किशोरी बन रही और स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी करने में लगी एक लड़की का लिखा पहला ही उपन्यास यदि पाठकों और समीक्षकों को व्यास रचित ‘महाभारत‘, में मिल्टन के ‘पैराडाइज लास्ट‘, आस्कर वाइल्ड के ‘द पिक्चर आॅफ डोरियन ग्रे‘, में स्टीवेंसन के ‘डाॅ. जैकिल एंड मि. हाइड‘, आचार्य चतुर सेन के ‘वयं रक्षाम‘, शिवाजी सावंत के मृत्युंजय और बिल्कुल हाल में प्रकाशित हुए आनंद नीलकंठन के ‘कली का उदय‘ जैसी कृतियों की याद दिला दे तो अलग से प्रसंगपूर्ण कुछ कहने की आवश्यकता ही कहाॅ रह जाती है?
आज उपन्यास की लेखिका कु0 त्विशा ने आज प्रेस क्लब में पत्रकार सथियों के समक्ष अपनी बाते रखी और विस्तृत वर्णन किया। उपन्यास की समीक्षा प्रो. हेमचन्द पाण्डेय ने व्याख्या सहित की। इस उपन्यास की नायिका जिस आध्यात्मिक और नैतिक प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश करती है। उन प्रश्नो ने एक लम्बी यात्रा पूरी की, क्योकि हजारों वर्षो से मानव चेतना की विकास यात्रा में चुनौती की तरह बने हुये है। इस उपन्यास में नायिका न तो भगवान बनके देखती है न शैतान, वो बीच में अपने को मानव बनकर ही संभावनायें तलाशती रहती है। इस अवसर पर प्रो. श्रीमती गुलशन दास, त्विशा के माता-पिता श्री अजय सिंह एवं श्रीमती विभा सिंह (प्रो0 सी.एम.डी. काॅलेज) प्रदेश महामंत्री अटल श्रीवास्तव, प्रदेश प्रवक्ता अभय नारायण राय वही प्रेस क्लब के अध्यक्ष तिलक सलूजा, वीरेन्द्र गहवई (सचिव), उमेश मौर्य, सूरज वैष्णों सहित वरिष्ठ पत्रकारगण उपस्थित थे। इलेक्ट्रानिक एवं प्रिंट मीडिया के सभी साथी इस अवसर पर उपस्थित थे।

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