ताली-थाली-शंख के बाद अब गाल बजाओ!!

(आलेख : संजय पराते)
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा देश को 21 दिन के लिए लॉक डाउन करने की घोषणा के बाद अब स्पष्ट है कि कोरोना वायरस का हमला भारत में सामुदायिक संक्रमण (कम्युनिटी ट्रांसमिशन) के तीसरे चरण में प्रवेश कर गया है। इस चरण में यह वायरस मनुष्य द्वारा मनुष्य से ही नहीं फैलता, बल्कि मानव समाज पर हवा और सतह से भी वार करने लगता है। अतः संक्रमण के स्रोत का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। भारत जैसे देश में, जहां विकसित देशों की तुलना में उन्नत स्वास्थ्य सुविधाओं तक आम जनता की पहुंच नहीं के बराबर है और जहां निजीकरण के चलते स्वास्थ्य सुविधाओं का खचड़ा बैठ गया है और जिसके सीधे प्रमाण इस तथ्य से जाहिर होते हैं कि चिकित्सकों सहित हमारे तमाम स्वास्थ्य कर्मी अति-आवश्यक मास्क, दस्तानों, बॉडी कवर और सैनिटाइजर की कमी से जूझ रहे हैं और संदिग्ध मरीजों को भी जांच के लिए भटकना पड़ रहा है, इस हमले की बहुत बड़ी कीमत देश और आम जनता को चुकानी पड़ेगी।
इस वायरस ने पिछले तीन महीनों की अवधि में दुनिया के (भारत को छोड़कर) 5.2 लाख लोगों को संक्रमित किया है और वास्तव में तो लगभग 23000 लोग मारे भी गए हैं। इन देशों की कुल आबादी लगभग 220 करोड़ हैं। तब भारत के लिए यह कीमत कितनी होगी?
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मई तक भारत में 10 लाख से ज्यादा लोगों के संक्रमित होने और 30,000 से ज्यादा लोगों के मारे जाने की आशंका व्यक्त की है। *द प्रिंट* ने सॉफ्टवेयर उद्यमी मयंक छाबड़ा के विश्लेषण को सामने रखा है कि सामुदायिक संक्रमण के चरण में पहुंचने पर अज्ञात मामलों की संख्या 8 गुना से ज्यादा हो सकती है और मई अंत तक संक्रमण के 50 लाख से ज्यादा मामले और 1.7 लाख मौतें हो सकती हैं।
हमारे देश में कोरोना प्रभावित मरीजों की संख्या हर 5 दिन में दुगनी हो रही है और मई अंत तक इस रफ्तार से 40 लाख से ज्यादा लोग संक्रमण का शिकार होंगे और वर्तमान वैश्विक मृत्यु दर 4.4% को ही गणना में लें, तो लगभग दो लाख मौतों की आशंका है। यदि लॉक डाउन के जरिए संक्रमण के 60% मामलों को भी थाम लिया जाए, तो भी 14 अप्रैल तक 3600 लोगों के और मई अंत तक 4 लाख लोगों के संक्रमित होने व 16 हजार से ज्यादा की मौत होने की आशंका तो है ही।
यह सभी आकलन कितने गलत साबित होंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य सरकारों के साथ मिलकर हमारी केंद्र सरकार इस भयावह स्थिति का कितनी कुशलता, संवेदनशीलता व राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ मुकाबला करती है; आम जनता की सेहत को बनाये रखने के लिए लॉक डाउन सहित और क्या प्रभावी कदम उठाती है और कितने कम समय में हमारे स्वास्थ्य सेवाओं को इसका मुकाबला करने के लिए तैयार कर पाती है। लेकिन इन पहलुओं पर एक निराशाजनक तस्वीर ही सामने आती है।
प्रधानमंत्री मोदी का भाषण इस बीमारी से लड़ने के लिए लोगों को *घरों में कैद रहने* जैसे चिकित्सा उपायों पर अमल करने का ही संदेश देता है। लेकिन उन्होंने यह तक बताना ठीक नहीं समझा कि इस बीमारी से लड़ने के लिए सरकार ने अब तक क्या तैयारियां की है और आगे क्या योजना है? इस महामारी से निपटने के लिए वे राज्यों का सहयोग तो चाहते हैं, लेकिन उस केरल सरकार का जिक्र तक करना उचित नहीं समझते, जिसने अपने संसाधनों के बल पर राज्य के 3.5 करोड़ नागरिकों की मदद के लिए 20000 करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज की घोषणा करके पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। शायद ऐसा इसलिए कि वह पूरे देश के लिए केवल 15000 करोड़ रुपये स्वास्थ्य क्षेत्र को आबंटित कर रहे हैं और यह हमारे आवश्यकता के मद्देनजर नितांत अपर्याप्त है। जहां तक आम जनता को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा देने का सवाल है, वह तो *ठन ठन गोपाल* था।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा कथित रूप से 1.75 लाख करोड़ रुपये का जो आर्थिक पैकेज घोषित किया गया है, वह भी कारगर साबित नहीं होने वाला है। पूर्व में किसान सम्मान निधि के लाभान्वितों की संख्या 14.5 करोड़ बताई जाती रही है, लेकिन इस पैकेज में इसका लाभ केवल 8.6 करोड़ किसानों को ही दिया जा रहा है। इसी प्रकार इस पैकेज में 80 करोड़ नागरिकों को मुफ्त अनाज वितरण का लाभ देने का दावा किया गया है, जबकि वर्तमान में जारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली से इतने लोग जुड़े ही नहीं है। अतः 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का लाभ देने की घोषणा केवल जुमलेबाजी ही है। इसी तरह यह परिकल्पना कर ली गई है कि मनरेगा की दैनिक मजदूरी 20 रुपये बढ़ाने से सभी हितग्राही परिवारों को 2000 रुपये की मदद हो जाएगी; जबकि वास्तविकता यह है कि पूरे देश में केवल 4% परिवारों को ही 100 दिनों का काम मिलता है और प्रति परिवार औसत काम के दिनों की संख्या केवल 30-35 ही है। किसान सम्मान निधि की राशि भी बजट का ही हिस्सा है, जिसे आर्थिक पैकेज के साथ पेश किया गया है।
दिसंबर में ही इस वैश्विक प्रकोप की सच्चाई सामने आ चुकी थी। हमारे देश में भी पहला मामला जनवरी अंत तक आ चुका था। इस चेतावनी के मद्देनजर यह जरूरी था कि हमारे देश की स्वास्थ्य सुविधा को आसन्न संकट के लिए तैयार किया जाता। लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में तैयारियां सिफर रही और स्वास्थ्य कर्मियों व जनता के लिए आवश्यक जीवन रक्षक मास्क, दस्तानों और जांच-किटों तक को जुटाने के बजाय 24 मार्च तक इन सामग्रियों का बड़े पैमाने पर निर्यात ही किया जाता रहा। आज हम इन सब मेडिकल सामग्रियों के अभाव से गुजर रहे हैं। यह अभाव हमारे चिकित्सकों की जान को भी जोखिम में डाल रहा है, जिन्हें अपने मरीजों का इलाज करना है। यह अभाव कितना जबरदस्त है, इसे हरियाणा की डॉक्टर कामना कक्कड़ के शब्दों में समझा जा सकता है, जो लिखती हैं कि — “N-95 मास्क व दस्ताने आज जाए, तो कृपया उन्हें मेरी कब्र पर भेज देना। ताली व थाली भी बजा देना वहां।”
इस समय देश को रोज 50000 बॉडी कवर चाहिए। लेकिन मई अंत तक ही हमें 7.5 लाख बॉडी कवर व 1.6 करोड़ मास्क मिल पाएंगे। जब डॉक्टरों का यह हाल है, तो समझ लीजिए मरीजों का क्या होने वाला है? आने वाले दिनों में अस्पताल ही संक्रमण के अड्डों में तब्दील होने जा रहे हैं। इस समय देश में केवल एक लाख आईसीयू बेड और 4000 वेंटीलेटर हैं। यदि यह प्रकोप इसी रफ्तार से फैलता रहा, तो अप्रैल अंत या मई मध्य तक अस्पतालों में मरीजों को बिस्तर तक नसीब नहीं होगा। इस स्थिति से थोड़ा राहत पाने का एक उपाय यह हो सकता है कि निजी अस्पतालों को इस प्रकोप के खत्म होने तक सरकार अपने हाथ में ले लें, लेकिन ऐसा करने से वह रही। स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण करना ही आखिर उसकी नीति रही है।
क्या इस बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारने की प्राथमिकता कभी मोदी सरकार की रही है? यदि रहती, तो देश के खजाने का पैसा मूर्तियों पर लगाने के बजाय अस्पतालों के निर्माण में खर्च किया जाता।
इस महामारी का हमला भी ऐसे समय पर हुआ है, जबकि देश मंदी से गुजर रहा है और पिछले एक माह से तो आर्थिक गतिविधियां अस्त-व्यस्त है। देश की 85% आबादी अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी है, जिनके परिवारों की औसत मासिक आय 10000 रुपये से भी कम है। यह तबका रोज कमा कर अपने खाने का जुगाड़ करता है। लाखों लोग सड़कों पर सोते हैं। इन्हें 21 दिनों तक बिना कोई राहत दिए और उनकी आजीविका के प्रति संवेदनशील हुए बिना सोशल डिस्टेंसिंग के मकसद को पूरा नहीं किया जा सकता। *पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे* के अनुसार देश के 35 करोड़ मजदूर स्वरोजगार या अस्थायी लेबर और अनियमित वेतन भोगी कर्मचारी हैं। उनकी आजीविका की एकदम जरूरी आवश्यकता को पूरा करने के लिए जन धन खातों व अन्य उपायों से 10000 रुपये ही अगले दो माह के लिए अग्रिम दिए जाए, तो 3 लाख करोड रुपयों की जरूरत होगी जो कि हमारी जीडीपी का 1.5% होगा।
करोना से लड़ने का हम जो मॉडल अपना रहे हैं, वह इटली मॉडल है, जो लोगों को घरों में कैद करने पर बल देता है। इटली में यह बुरी तरह असफल हुआ है और हमारे देश में यह कहां तक सफल होगा, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
दूसरा मॉडल दक्षिण कोरिया का है, जिसने देश को लॉक डाउन करने से बजाए प्रत्येक नागरिक का टेस्ट करने और संक्रमित लोगों को बेहतर उपचार देने में लगाया। 5 करोड़ की आबादी वाला यह देश कोरोना के हमले से सबसे कम प्रभावित हुआ है। वहां संक्रमित लोगों की संख्या मात्र 0.02% है तथा मौतों की संख्या 1.33% है।
लेकिन इस मॉडल को अपनाने के लिए ना तो हमारी स्वास्थ्य सेवा सक्षम है और न ही सरकार में राजनीतिक इच्छा शक्ति। इसके लिए हमें कम से कम रोजाना 2 लाख लोगों का टेस्ट करना पड़ेगा, जबकि इस समय हमारे देश में केवल 1.5 लाख जांच-किटें ही उपलब्ध हैं। लेकिन जब तक हम इन जीवनरक्षक चिकित्सा सामग्रियों का जुगाड़ करेंगे, तब तक काफी देर हो चुकी होगी और हजारों नागरिकों की जान जा चुकी होगी।
*(लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं।)*

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