प्रो. खेरा को अंतिम विदाई देते वक्त रो पड़े बच्चे,गमगीन माहौल में हुआ अंतिम संस्कार

बिलासपुर. समाजसेवी एवं शिक्षाविद प्रो प्रभुदत्त खेरा लमनी में अंतिम संस्कार किया गया।जैसे ही लमनी गॉव में प्रो खेरा का पार्थिव देह पहुँचा स्कूल के बच्चे बिलख कर रो पड़े।अंतिम यात्रा में मुंगेली व बिलासपुर जिले के जनप्रतिनिधियों के अलावा प्रसाशनिक अफसर भी मौजूद रहे।मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ओर से अटल श्रीवास्तव तथा मुंगेली कलेक्टर ने पुष्पचक्र अर्पित किया।इस अंतिम यात्रा में सांसद अरुण साव,विधायक धर्मजीत सिंह, कलेक्टर संजय अलंग,मुंगेली कलेक्टर सर्वेश्वर नरेंद्र भूरे,तोखन साहू, अभय नारायण राय,विजय केशरवानी,महेश दुबे,धर्मेश शर्मा,प्रशांत सिंह, अरविंद शुक्ला,बा टू सिंह,अजय श्रीवास्तव, आशुतोष शर्मा के अलावा लमनी छपरवा एवं आदिवासी गॉव के काफी संख्या में ग्रामीण शामिल हुए।
प्रो. खेरा सही मायनों में गांधीवादी,गाँधीविचारक व समाजसेवक थे – अटल
प्रो प्रभुदत्त खेरा के दुःखद निधन पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कांग्रेस के प्रदेश महामंत्री अटल श्रीवास्तव ने कहा कि लमनी में जिस झोपड़ी में प्रो खेरा रहते थे वहां उनकी यादों का संजोने का प्रयास किया जायेगा।प्रो खेरा सही मायनों में गांधीवादी,गाँधीविचारक,समाजसेवक और शिक्षा विद थे।जिन्होंने दिल्ली में प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त होने के पश्चात लगभग 30 वर्षो से बिलासपुर के अचानकमार के लमनी और छपरवा में बैगा आदिवासी की सेवा कर रहे थे।आदिवासी बच्चों के बीच शिक्षा की अलख जगा रहे थे, सादगी भरा जीवन जीने वाले प्रो खेरा का निधन समाज की अपूरणीय क्षति है।
प्रो. प्रभुदत्त खेरा ने आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया
प्रसिद्ध समाजसेवी एवं शिक्षा विद डॉ प्रभुदत्त खेरा का कल सुबह लम्बी बीमारी के बाद अपोलो अस्पताल में निधन हो गया।उनका जन्म 13 अप्रेल 1928 को हुआ था।आज ग्राम लमनी में उनका अंतिम संस्कार किया गया।डॉ खेरा पिछले 35 वर्ष से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र अचानकमार के जंगलों के बीच लमनी गॉव में आदिवासी बच्चों को शिक्षित कर रहे थे।वे दिल्ली विश्वविद्यालय में 15 साल तक समाजशास्त्र पढ़ाते रहे।प्रो खेरा सन 1983,84 में बिलासपुर आये, इस दौरान वे अचानकमार के जंगल मे घूमने गए।वहा पर आदिवासी बच्चों को शिक्षा से दूर देखकर उनका मन काफी व्यथित हुआ।और उन्होंने वर्तमान मुंगेली जिले के लमनी गॉव में ही बसने का फैसला कर लिया।इसके बाद उन्होंने आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया, और दिल्ली के ऐशो आराम को छोड़कर लमनी के जंगलों में ही आ बसे।प्रो खेरा सादगी जीवन जीते रहे।एक झोपड़ी में ही उन्होंने सादगी तरीके से अपना रहन सहन खानपान करते हुए सारी जिंदगी आदिवासियों के बीच गुजार दी।