शब्‍द और संस्‍कार का निर्यात आवश्‍यक : डॉ. संजय पासवान

वर्धा. पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्‍य मंत्री तथा बिहार विधान परिषद के सदस्य डॉ. संजय पासवान ने मंगलवार को कहा कि हमें शब्‍द और संस्‍कार का निर्यात करना चाहिए। डायस्‍पोरा के लिए एक उपयुक्‍त शब्‍द ‘विहार’ हो सकता है, इस पर विचार करने की जरूरत है। भारतवंशी श्रम, संस्‍कृति और ज्ञान के प्रसार हेतु भारत से बाहर गए।


डॉ. पासवान महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् तथा सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्‍ली के सहयोग से ‘भारतीय डायस्‍पोरा का वैश्विक परिप्रेक्ष्‍य : जीवन और संस्‍कृति’ विषय पर आयोजित त्रिदिवसीय (2-4 अगस्‍त) अंतरराष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी के उद्घाटन समारोह में विशिष्‍ट अतिथि के रूप में बोल रहे थे। समारोह की अध्‍यक्षता विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल ने की।

डॉ. पासवान ने आगे कहा कि गिरमिटिया के रूप में सबसे ज्‍यादा बिहार से लोगों को ले जाया गया। श्रमिकों का विस्‍थापन, वितरण और विभाजन हुआ। उन्‍होंने क‍हा कि वर्तमान सरकार धर्मानुकूल और देशानुकूल है। हम अपने शब्‍दों के माध्‍यम से दुनिया में व्‍यापार कर सकते हैं। नयी शिक्षा नीति के दौर में नये शब्‍दों को विस्‍तारित करना है। इस दृष्टि से डायस्‍पोरा अध्‍ययन को जोड़ा जाना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि अर्थव्‍यवस्‍था और राष्‍ट्र-निर्माण में सबका योगदान है, इसलिए डायस्‍पोरा अध्‍ययन में साइंस, लैंग्‍वेज, सोशल साइंस इत्‍यादि की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

उद्घाटन समारोह में अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, नई दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पाण्‍डेय, गुजरात साहित्‍य अकादमी, अहमदाबाद के पूर्व अध्‍यक्ष पद्मश्री विष्‍णु पंड्या, भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्, नई दिल्‍ली के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद मिश्र, प्रतिकुलपति एवं संगोष्‍ठी के संयोजक प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्ल, कुलसचिव क़ादर नवाज़ ख़ान तथा आयोजन सचिव डॉ. रोमसा शुक्ला मंचस्‍थ थे।

मुख्‍य अतिथि के रूप में आभासी माध्‍यम से वक्‍तव्‍य देते हुए भारतीय सांस्‍कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्‍ली के अध्‍यक्ष डॉ. विनय सहस्रबुद्धे ने कहा कि ब्रितानी काल में छह लाख से अधिक भारतीयों को भ्रमित कर, लोभ देते हुए यहां से प्रवासित किया। भारतीयों ने श्रम संस्‍कृति का संदेश देते हुए दुनिया को आकर्षित किया। प्रवासी भारतीयों ने ‘स्‍व’ की पहचान को बरकरार रखकर बाहरी देशों में भारतीय कलाओं की साधना की। उन्‍होंने रामशरण जी के भजन गायन की परंपरा का उल्‍लेख करते कहा कि डायस्‍पोरा अध्‍ययन में रामशरण जैसे गायकों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिसने भारतीय ध्‍वज को लहराया है।

डॉ. बालमुकुंद पांडेय ने प्रधानमंत्री के ‘ब्रेन ड्रेन की बजाय ब्रेन गेन’ को उद्धृत करते हुए कहा कि भारतीय मेधा सांस्‍कृतिक और आर्थिक रूप से भारत को जोड़ने, विश्‍व को सभ्‍य बनाने की दृष्टि से दुनिया में गयी। यहां से वह भाषा, भाव और संस्‍कृति को लेकर गयी और उसी ने भारतीय ज्ञान-परंपरा से दुनिया को जोड़कर रखा है। भारतवंशी यहां से कई देशों में जाकर भारत का मान बढ़ा रहे हैं, वहाँ की अर्थव्‍यवस्‍था को नयी उंचाइयां प्रदान की हैं। दर्जन भर देशों में तो भारतवंशी राजनीति, अर्थनीति में प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं।

पद्मश्री विष्‍णु पंड्या ने कहा कि गुजरात के दो करोड़ से अधिक लोग दुनिया के साठ देशों में रहते हैं। वसुधैव कुटुम्‍बकम् के मूलमंत्र के साथ विदेशों में बसे भारतीयों में मातृभूमि, राष्‍ट्रभक्ति का भाव सदा बना रहता है। उन्‍होंने कहा कि डायस्‍पोरा के लिए ‘विश्‍व निवासी’ कहना ज्‍यादा सटीक होगा।

डायस्‍पोरा के लिए ‘परिव्राजक’ शब्‍द पर जोर देते हुए डॉ. सच्चिदानंद मिश्र ने कहा कि प्रवासी भारतीयता को हमेशा साथ लेकर चलता है, यही उसकी पहचान है। प्रवासी भारतीयों ने पूर्वजों की विरासत को अक्षुण्‍ण रखा है। सम्राट अशोक ने धर्मप्रचार के लिए अपने बच्‍चों को दूसरे देशों में भेजा। भारतवासी जब यहां से गए तो अपनी सांस्‍कृतिक विरासत और जीवन-पद्धति को भी साथ लेकर गए। वे गीता, रामायण आदि साथ लेकर गये। गंगा को नहीं ले जा सके तो प्रवासी भारतीय मॉरीशस में तालाब को गंगा का मान देकर पूजा अर्चना करने लगे। भारतीय मन एक लोटे के जल में भी मंत्रोच्चार के द्वारा सभी नदियों की संस्‍कृति को एक में मिला देता है। वैश्विक परिप्रेक्ष्‍य में वसुधा ही हमारा परिवार है। परिवार में मतभेदों को दूर किया जाता है। विवाद को सुलझाने के लिए हो युद्ध नही संवाद आवश्‍यक है।

उद्घाटन समारोह की अध्‍यक्षता करते हुए विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल ने कहा कि भारतवंशी लोगों का विदेशों में स्‍थलांतर अत्‍यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में हुआ है। विदेश जाने के बाद भी उन्‍हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ा। परंतु अभी परिस्थितियां बदली हैं और भारतीय लोग राष्‍ट्राध्‍यक्ष तथा राष्‍ट्र प्रमुख के नाते श्रेष्‍ठतम स्‍थान पर अपनी भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने भारत से विदेश गये लोगों को विकीर्णित भारतवंशी करार देते हुए कहा कि जिस प्रकार सूर्य की किरणें विकीर्णित होकर प्रकाशित करती हैं उसी प्रकार भारतवंशी भी भारतीय मूल्‍य, परंपरा और संस्‍कृति को विकीर्णित कर रहे हैं। भारत के बाहर रह रहे लोगों के मन में शांति और सह-अस्तित्‍व की भावना और संपोष्‍यकारक रिश्‍ते को बनाने की भावना है। उनमें समरस समाज बनाने का संकल्‍प है। वे आस्‍था प्रणाली, संस्‍कृति को कायम रखकर रिश्‍ते को पुनर्जीवित करने का काम कर रहे हैं। कुलपति प्रो. शुक्‍ल ने कहा कि डायस्‍पोरा के वैश्विक परिप्रेक्ष्‍य को समझने के लिए विश्‍व के साथ सुसंगतता को देखना जरूरी है।

समारोह की शुरुआत दीप दीपन, विद्यार्थियों द्वारा प्रस्‍तुत मंगलाचरण एवं कुलगीत से हुई। अतिथियों का स्‍वागत अंग वस्‍त्र, श्रीफल, सूत माला एवं प्रतीक चिह्न प्रदान कर किया गया। संगोष्‍ठी के संयोजक प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्‍ल ने देश-विदेश से सहभागिता कर रहे अतिथियों का स्‍वागत तथा कुलसचिव क़ादर नवाज़ खान ने आभार व्‍यक्‍त किया। संगोष्‍ठी की आयोजन सचिव डॉ. रोमसा शुक्‍ला ने संचालन किया ।

इस अवसर पर गणमान्‍य अतिथि, विश्‍वविद्यालय के अधिष्‍ठातागण, विभागाध्‍यक्ष, अध्‍यापक, शोधार्थी एवं विद्यार्थी बड़ी संख्‍या में उपस्थित थे।

आग्रह और सत्‍याग्रह पर संगोष्‍ठी के साक्षी हो सके

अंतरराष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी में वक्‍ताओं ने कहा कि आयोजन सचिव डॉ. रोमसा शुक्‍ला के आग्रह पर हम संगोष्‍ठी में सहभागिता करने आये हैं। डॉ. रोमसा का कहना था कि संगोष्ठी के लिए आप आग्रह करने पर नहीं आए तो मैं सत्‍याग्रह कर दूंगी। उनके आग्रह और सत्‍याग्रह के कारण ही डायस्‍पोरा के वैश्विक परिप्रेक्ष्‍य विषयक अंतरराष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी के साक्षी हो सके। वक्‍ताओं की इस टिप्‍पणी से सभागार में उपस्थित लोगों ने जोरदार तालियां बजाकर आयोजन सचिव डॉ. रोमसा का अभिनंदन किया।

 

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