अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-2025 : चुनौतियों से आगे बढ़ने की जिद का अवसर
(आलेख : संध्या शैली)
संयुक्त राष्ट्र संघ का अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस-2025 का आह्वान महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी देने का है। लेकिन यह रास्ता कितना लंबा है, यह हाल की कई घटनायें दिखाती हैं। हमारा देश ही नहीं, आज पूरी दुनियां में जिस तरह से दक्षिणपंथी विचारधारा हावी है, उससे यही दिखता है कि जो मंज़िलें महिला आंदोलन और प्रगतिशील आंदोलनों ने मिल कर तय की थीं, जो सफलतायें हासिल की थीं, उन पर पानी फेरने के लिये माहौल बनाया जा रहा है, जिसके चलते सहज आशंका उठती है कि महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबरी देने का यह आह्वान संकीर्ण राष्ट्रवादी सोच में लिथड़ कर कहीं धार्मिक कट्टरता या अंधभक्ति से प्रेरित महिलाओं की बराबरी हासिल कर लेने के दावे या फिर अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासी महिलाओं के वास्तविक अधिकारों में कांट-छांट करने वाले कानूनों के अमल में न बदल जाए।
इधर भाजपा-आरएसएस की विचारधारा काफी हद तक लोगों के दिमागों में घर कर चुकी है। इसका फायदा उठाकर यदि सरकार परिवार बचाने के नाम पर दहेज विरोधी कानून को खत्म करने, एक ही कानून के अंतर्गत सारे धर्मों और समाजों की महिलाओं को लाने के लिये कथित समान नागरिक कानून को पूरे देश में लागू करने और गरीबों को आर्थिक सहायता देना बंद करने का आदेश यदि ठीक अंतर्राष्टीय महिला दिवस पर ही जारी कर दे, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। उसके बाद, जैसा कि इन दिनों रिवाज-सा बन गया है, मध्यम वर्गीय और खास तौर पर सवर्णवादी रिटायर्ड अंकल टाइप के लोग इसे सही साबित करने में लग जायेंगे और उनके वर्चस्व में फंसी कई महिलायें भी इसमें शामिल हो जायेंगी।
भारतीय समाज विविधताओं और अनेकताओं और उसी के साथ कई तरह की विषमताओं से भरा समाज है। भाषा, खानपान, पोशाक, बोली और धार्मिक मान्यतायें इतनी विविधता लिये हुए हैं कि इन्हे किसी एक सांचे में ढालना न केवल मुश्किल है, बल्कि असंभव है। यह अनेकता ही एकता की और यह विविधता ही हमारे जनतंत्र की नींव भी है।
डॉ. अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक ‘आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ में लिखते हैं कि भारत में जब वे गैरबराबरी के बारे में सोचते हैं, तो यह गैर बराबरी सिर्फ आर्थिक गैर बराबरी नहीं है, यह सामाजिक भी है, साथ ही धार्मिक भी है। और इस गैर बराबरी को खत्म करने के लिये कई स्तरों पर एक साथ काम करने की जरूरत है। लेकिन भाजपा-आरएसएस के पिछले दस सालों के शासन ने गैर बराबरी बढ़ाने वाले कानूनों, नियमों और व्यवस्थाओं को तेजी के साथ लागू किया गया है और इस तरह, उनके खत्म होने या कम होने की संभावनाएं भी क्षीण-सी कर दी हैं।
बीबीसी की हाल की रिपोर्ट है कि आम मध्यम वर्गीय परिवार की खरीद की क्षमता कम हो गयी है। ट्रंप के आगे बिछ जाने वाले हमारे देश के प्रधानमंत्री का गुणगान करके असली खबरों को छुपा देने वाला मीडिया यह खबर नहीं छापेगा, लेकिन सत्तर के दशक का वह मध्यम वर्ग अब नहीं है, जो इमरजेंसी के दिनों में छिपी हुयी खबरें ढूंढ लाता था। इसके पीछे एक और कारण यह भी हो सकता है कि भारत का मध्यम वर्ग, जो अधिकतर उच्च वर्णीय है, मूलतः कांग्रेस विरोधी है। इस कारण कांग्रेस की इमरजेंसी का विरोध उसने किया। लेकिन आज अघोषित इमजेंसी मीडिया पर नकेल और हर विरोधी राजनीतिक दल को देशद्रोही तक करार दे देने की वाट्सअप मीडिया द्वारा किये जा रहे प्रचार को यही मध्यम वर्ग गर्व के साथ सुन रहा है, फैला रहा है और अपने ड्राइंग रूम में बैठकर अपने ही बच्चों के दिमागों को विकृत कर रहा है। आरएसएस की प्रोपेगेंडा फिल्मों को इतिहास समझने की मूर्खतापूर्ण कोशिश उनके लिये इसलिये भी सहज है, क्योंकि यह उनके स्वभाव से मेल खाती है।
प्रगतिशील और महिला आंदोलन के लिये यह एक चुनौती है, क्योकि वाट्स एप का यह पाठ उनके घरों में भी घुस चुका है। यह एक भयानक स्थिति है, जब एक बेहद शिक्षित और उच्च मध्यम वर्गीय प्रौढ़ भी सिनेमा हॉल में बैठ कर फिल्मों में दौरान असभ्य और लम्पट युवाओं की तरह से सांप्रदायिक नारे लगाता है। अगर इतिहास में झांका जाये, तो इसका एक ज्वलंत उदाहरण जर्मनी है, जहां पर नाज़ियो के द्वारा यहूदियो के खिलाफ फिल्में दिखाई जाती थीं, आम जर्मन लोगों को उन फिल्मों को देखने के लिये प्रोत्साहित किया जाता था और फिर सिनेमा हॉल से निकल कर पढे-लिखे मध्यमवर्गीय लोग भी यहूदी घरों और दुकानों पर टूट पडते थे। भारत में भी यह शुरू हो चुका है। दिल्ली में ‘छावा’ फिल्म देखने के बाद निकले युवाओं ने अकबर रोड के नाम की पट्टी पर गंदगी फेंकी। शिवाजी और संभाजी जैसे शासकों, जिन्होने अपने शासन को धार्मिक कट्टरपंथ के आधार पर नहीं चलाया था, उनका भी दुरुपयोग आज आरएसएस और भाजपा के प्रोपेगंडाकार कर रहे हैं। इतिहास को इतिहास की तरह समझने और फिल्मों को फिल्मों की तरह देखने की दृष्टि खत्म होती जा रही है। आरएसएस, बजरंग दल के गुंडों के माध्यम से भाजपा के द्वारा विश्वविद्यालयों में वक्ताओं के बोलने पर रोक लगा दी जाती है, सार्वजनिक कार्यक्रम निरस्त करने पर मजबूर किया जाता है, कॉलेज परिसर में प्रगतिशील विचारों वाले लेखकों की पुस्तकों वाले बुक फेयर को आयोजित नहीं होने दिया जाता, प्रोफेसर और शिक्षक तक दूसरे देश के आये हुए विद्यार्थियों के साथ नस्लीय भाषा में बात करते हैं, उन्हे गैर कानूनी तरीके से निकाल देते हैं, जैसे अभी कलिंग विश्वविद्यालय में हुआ। न केवल यह विश्वविद्यालय में हुआ, बल्कि वाट्स अप के द्वारा घरों में पहुंचा दिया गया कि जो हुआ, वह ठीक हुआ, क्योंकि नेपाल हमसे नहीं, चीन से सहायता लेता है। इसलिये उनके विद्यार्थियों को हमारे यहां से निकाला गया, तो ठीक हुआ। यह शुद्ध पागलपन है।
जिस देश में गोविंद पानसरे, डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या की जाती है और बाद में उनके ही खिलाफ भाजपा के राजनीतिज्ञ भद्दे बयान देते हैं ; जहां पर टीवी पर खुले तौर पर बेहूदा तरीके से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार रोमिला थापर, इरफान हबीब और बरखा दत्त को देश से बाहर निकालने की बात की जाती है ; जिस देश के महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को पहले देश में आने नहीं दिया जाता और हाल में उनकी कलाकृतियों को सरकार द्वारा कब्जे में कर लिया जाता है, उस देश में चुनौतियां बहुत हैं। लेकिन संभावनाएं भी कम नहीं हैं। जैसा कि अमर्त्य सेन 90 साल की उम्र में भी कहते हैं कि वो इस देश से निराश नहीं है, क्योंकि इस देश में बौद्धिकता की कमी नहीं है। इसीलिये यहां कई पंथों और विचारधाराओं ने जन्म लिया और वे यहां पनपी भी। बौद्ध धर्म की सीखें कई मायनों में ईसाईयत, यहूदी और इस्लाम धर्म की सीखों का आधार बनीं। कूपमंडूकता में डूबने के पहले बौद्ध धर्म के उत्कर्ष के दौरान इसी देश में गणित और विज्ञान के कई पायदान चीनी सभ्यता की तरह तब तय कर लिये गए थे, जब यूरोप अंधकार के युग में डूबा था। इसलिये इस बौद्धिक भारतीय को देश को बचाने का रास्ता ढूंढना ही होगा।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की इस वर्ष की यही चुनौती है कि उसे सामाजिक सद्भाव की रक्षा करते, गरीब, दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी महिलाओं के हितों और सभी तबकों की महिलाओं की समानता वाले अधिकारों को बचाने के लिए संघर्ष तेज करने के साथ-साथ आम प्रगतिशील और जनतांत्रिक आंदोलन की साझा मुहिम का हिस्सा बनना होगा।