भोजन ग्रहण करना एक शारीरिक क्रिया ही नहीं बल्कि एक मानसिक क्रिया भी है : योग गुरु महेश अग्रवाल
भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक योग केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल कई वर्षो से निःशुल्क योग प्रशिक्षण के द्वारा लोगों को स्वस्थ जीवन जीने की कला सीखा रहें है वर्तमान में भी ऑनलाइन माध्यम से यह क्रम अनवरत चल रहा है |योग प्रशिक्षण के दौरान साधकों को आहार ग्रहण विधि के बारे एवं अन्य प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में बताया जाता हैं, एवं कौन सा आसन, प्राणायाम या मुद्रा भोजन के पहले, बाद में, तुरंत, या कितनी देर बाद कर सकते हैं इसके बारे मे विशेष जानकारी दी जाती हैं |
योग गुरु अग्रवाल ने बताया कि शरीर आहार से ही उत्पन्न है और सभी रोग भी आहार के दोषों से ही उत्पन्न होते है |
आहार की मात्रा : अर्थात् कितना खायें ? सिद्धान्ततः दीर्घ आयु के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार, पौष्टिक, सुपाच्य तथा सात्विक आहार की जरूरत होती है। यौगिक आहार व्यवस्था का मूल सिद्धान्त ‘मिताहार’ अर्थात अल्पाहार ही है।* मिताहार का तात्पर्य मात्रा में कम तथा पाचन में सरल आहार से है। आयुर्वेद में इस सिद्धान्त का सुस्पष्ट निर्देश है। प्राचीन आचार्यों ने उचित ही कहा है कि भोजन करते समय आमाशय में लम्बे स्थान के संदर्भ में दो चौथाई ठोस आहार, एक चौथाई द्रव पदार्थ तथा एक चौथाई वायव्य पदार्थ से भरना चाहिए। यह एक चौथाई भाग खाली रखना चाहिए | ताकि पाचन में सुविधा रहें |
भोजन ग्रहण करना एक शारीरिक क्रिया ही नहीं बल्कि एक मानसिक क्रिया भी है। क्योकि भोजन के अवयव सिर्फ यही नहीं हैं जो हमारे पाचन तंत्र में मुँह से पहुंचायें जाते हैं वरन् भोजन ग्रहण करते समय मनोभाव भी काफी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं जिसमें शरीर की समस्त इंद्रियों के द्वारा आहार के रूप, रस, गुण, गन्ध इत्यादि का भी रसास्वादन लेते हैं। अतः जैसे-तैसे हड़बड़ी में, उद्वेलना की स्थिति में भोजन लेना हमेशा निषेध है क्योंकि संतुलित और पुष्टिकारक भोजन भी अगर शांत मनोभावों से न लिया गया हो तो उसके सारे उपयोगी तत्व विनष्ट हो जाते हैं या बिना उपयोग में लाए शरीर से उत्सर्जित कर दिए जाते हैं। देखा गया है कि अगर शुद्ध-शांत मनोभाव से सीधा-साधा सरल, सादा भोजन भी ग्रहण किया जाए तो शरीर इन्हीं भोजनों से अपने सभी पोषक तत्वों को प्राप्त करने में सक्षम है। ठीक सामने टेबुल पर बैठा दूसरा व्यक्ति उसी भोजन को अगर सकारात्मक भाव से प्रकृति या प्रभु द्वारा प्रदत्त प्रसाद के रूप में नहीं ग्रहण करता है तो उस व्यक्ति के शरीर में कुपोषण के सारे लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं।
इसलिए भोजन करना एक साधना है। इस साधना को फलवती बनाने के लिए निम्नलिखित निर्देश लाभकारी है : भोजन करने के पूर्व शौचादि से निवृत्त होकर हाथ-पांव मुंह धोकर शांति पूर्वक सुखासन में थोड़ी देर बैठना चाहिए। और शांत भाव से शांति मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए,सही अर्थों में भोजन करना एक महत् साधना है। मौन-पालन वेदों में यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि भोजन करने के समय मनुष्य को बिल्कुल मौन रहना चाहिए। इसके विपरीत आजकल के आधुनिक जमाने में खाने के समय ही व्यापार, अन्य प्रकार के प्रसंग छेड़े जाते हैं जो सर्वथा वर्जित है।भोजन करने के समय कच्चे पक्के भोजनों को एक साथ नहीं करना चाहिए क्योंकि एक साथ कच्चे-पक्के विविध व्यंजन लेने पर पेट के पाचक रस भ्रमित हो जाते हैं, क्योंकि पेट एक साथ ही सब तरह के पाचक रसों को उत्पन्न करने में तुरंत सक्षम नहीं हो पाता, इसलिए जहां तक संभव हो भोजन सरल एवं बहुमिश्रित व्यंजन रहित हो तो अच्छा है। खाते-खाते लगातार पानी नहीं पीते रहना चाहिए अगर आवश्यकता हो तो भोजन को गीला करने के लिए एकाध घूंट पानी पीना हानिकारक नहीं है। लेकिन खाने के तुरंत बाद बहुत ज्यादा पानी पी लेना हानिकारक है। क्योंकि इससे पाचक रस की तीव्रता कम हो जाती है और कहा जाता है कि ऐसे लोग मोटे भी ज्यादा हो जाते हैं। आयुर्वेद के कुछ खास ग्रन्थों के आधार पर जल ग्रहण करने के खास विधान हैं: भोजन के पहले क्षार मिश्रित जल का सेवन करने से आमाशय रस अधिक निकलता है। भोजन के प्रारंभ में नींबू के रस, सेंधा नमक और अदरक के सेवन से आमाशविक रस-स्त्राव अधिक होता है।निर्बल आमाशय वाले रोगी को भोजन के प्रारंभ में शुष्क पदार्थ का सेवन करना चाहिए जिससे उचित मात्रा में आमाशयिक रस का स्त्राव हो तरल पदार्थ के अधिक सेवन से रसस्त्राव में न्यूनता होती है। जिनकी पाचनशक्ति कमजोर हो उनको भोजन के साथ स्वल्प जल पीना चाहिए। भोजन के एक घंटे के बाद जल पीना उत्तम है। अग्निमांद्य और अपचन में भोजन के आरंभ में नींबू के रस और नमक के साथ अदरक, भोजन के अन्त में तक्र (मट्ठा), भोजन के साथ लहसुन, अनारदाना और पोदीना की चटनी एवं भोजन के दो-तीन घंटे के बाद नींबू का रस या सन्तरे का रस आदि लेना चाहिए। भोजनोपरांत 5 से 10 मिनट तक वज्रासन में बैठना चाहिए क्योंकि भोजन के बाद किसी दूसरे आसन का अभ्यास वर्जित है। वज्रासन से वज्र नाड़ी सक्रिय हो जाती है जो अन्त में मणिपुर चक्र को सुचारू करती है जिससे भोजन का पाचन, अवशोषण तथा अनपचे पदार्थ का उत्सर्जन शरीर से सुचारू रूप से हो पाता है। भोजन के पश्चात् किसी प्रकार का शारीरिक श्रम करना मना है। दिन के भोजन के बाद वज्रासन में भी आराम किया जा सकता है। अगर पिंगला नहीं चल रही हो तो बाएं करवट लेटकर पिंगला नाड़ी को चलाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इस नाड़ी के चलते ही पाचन क्रिया सक्रिय हो उठती है। रात्रि में भोजन के बाद खुली हवा में 15-20 मिनट तक घुमना नाड़ी-शोधन प्राणायाम तथा भ्रामरी लाभदायक होता है। खाने के लगभग चार घंटे के पश्चात् ही रात्रि में सोने हेतु शय्या पर जाना चाहिए भोजनोपरांत तुरंत मैथुन कर्म वर्जित है।
आजीवन निरोगी रहने के लिए कितना पानी या रस पियें ? प्यास लगने पर पानी या रस पिये। बिना प्यास व भूख के अमृत भी विष का काम करता है। क्या खाएँ? अपक्वाहार ( अंकुरित अन्न, फल, सलाद) या सीमित मात्रा में पक्वाहार खाएँ। कब खाएँ? वास्तविक सच्ची भूख लगने पर ही खाएँ। कितना खाएँ ? वास्तविक भूख से कम खाएँ। क्योंकि अधिकतर लोग ज्यादा खाने से मरते हैं कम खाने से कोई नहीं मरता। क्यों खाएँ ? शरीर की वृद्धि एवं मेन्टेनेंस के लिए खाएँ। थके हुए हैं तो विश्राम करें। मूड ऐलीवेटर्स (टंकलाइज़र्स चाय, काफी, तम्बाकू,बीडी सिगरेट, गुटका व शराब का सेवन न करें।थके हुए नहीं हैं तो काम करें। शक्ति के अनुसार काम करें। शक्ति से ज्यादा काम करने पर रोग उत्पन्न होते हैं |
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