शिकार की बजाय शिकारियों के बचाव की पतली गलियां तलाशने का समाजशास्त्र
दो साल पहले वर्ष 2019 के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश में बलात्कार के 84 मामले हर रोज दर्ज किये जाते हैं। इन आंकड़ों का रखरखाव करने वाला सरकारी विभाग नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो अपनी रिपोर्ट में इन्हे दुष्कर्म कहता है। पिछले दिनो में भी हर रोज इस तरह के दुष्कर्म (बलात्कार) की घटनाएं घटी हैं। महिला संगठनों तथा कुछ अन्य अध्ययनों के अनुसार कोरोना के लॉकडाउन में जहां एक ओर इस तरह की वारदातों में बढ़ोत्तरी हुयी है, वहीँ दूसरी तरफ इनकी रिपोर्ट लिखवाना और भी मुश्किल हुआ है। इसके पीछे उत्पीड़कों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत के अलावा कोरोना का बहाना भी है। किन्तु इसके अलावा कुछ और भी है। यह जो “और” है, वह नया नहीं है – पुराने की ही निरंतरता है – बस अंतर इतना है कि ढीठता पहले से बढ़ गयी है। हाल की दो प्रतिनिधि घटनाओं से इस “और” तथा उसके बढ़े-चढ़े ढीठपन को समझा जा सकता है।
मध्यप्रदेश के छतरपुर में दबंगों द्वारा एक दलित महिला को उसके परिवार सहित चार दिन तक इसलिए बंधक बनाकर रखा गया, क्योंकि उसके पति ने अपना स्वास्थ्य ठीक न होने के चलते इन बड़े लोगों का पेड़ काटने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी। दबंगों को यह नागवार गुजरा और वे न सिर्फ पूरे परिवार को उठा ले गए, बल्कि उस गर्भवती महिला के साथ उसके बच्चों तथा परिजनों के समक्ष ही बलात्कार भी किया। मगर बात यहीं तक नहीं रुकती, आगे जाती है और उसका और विचलित करने वाला आयाम वह है, जो इस घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) में “बलात्कार” का उल्लेख न किये जाने पर छतरपुर की पुलिस ने कहा। पत्रकारों द्वारा इस बारे में पूछे जाने पर एक अफसर ने कहा बताते हैं कि महिला ने अपने साथ बलात्कार होने की बात नहीं की थी, उसने सिर्फ यह कहा था कि “उसके साथ बुरा काम किया गया।” हालांकि बाद में स्थानीय चैनलों को दिए महिला के बयान को आधार बनाकर छतरपुर एसपी के निर्देश पर पुलिस ने अपराध में बलात्कार की धारा जोड़ ली है।
इसी से मिलता जुलता उदाहरण है — बलात्कार के करीब आठ वर्ष पुराने एक प्रकरण में तरुण तेजपाल को बरी किये जाने का गोवा के सत्र न्यायालय का फैसला। उनके नाम के आगे ‘पत्रकार’ का विशेषण लगाना जरूरी नहीं — बलात्कार और यौन हिंसा पत्रकार ने नहीं, व्यक्ति तेजपाल ने की थी। इस मामले में 527 पन्नों के निर्णय को सुनाते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश क्षमा जोशी ने तरुण तेजपाल को बरी करने के बेहद चौंकाने वाले आधार गिनाये हैं। उनके अनुसार पीड़िता ने किसी यौन उत्पीड़न की शिकार स्त्री के लिए निर्धारित “मानक व्यवहार” नहीं किया। यह भी कि “पीड़िता के हावभाव और व्यवहार” वैसे नहीं थे, जैसे इस तरह की घटनाओं के बाद होने चाहिए। उसे “भयभीत और पीड़ाग्रस्त दिखने” और “अस्वाभाविक” दिखने के लिए जिस तरह की “भंगिमायें दिखानी” चाहिए थीं, वह नजर नहीं आईं। गोवा की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश यहीं तक नहीं रुकीं। उन्होंने पीड़िता के व्यक्तिगत जीवन, उसके पूर्व और वर्तमान रिश्तों, अपनी मित्रों साथ उसकी बातचीत, सहमति के साथ संबंध बनाने और बलात्कार को लेकर एक पत्रकार के नाते उसकी धारणाओं की पूरी विवरणिका लिखते हुए उसकी निजता उघाड़ कर रख दी। उनकी नारीवादी मित्रों और वकीलों तक का उल्लेख कर ऐसा जताया, जैसे फैमिनिस्ट होना ही अपने आप में एक अपराध है।
गोवा की अदालत के ये भयानक “निष्कर्ष” वर्ष 1978 के मथुरा केस को भी पीछे छोड़ देते हैं। मथुरा प्रकरण में महाराष्ट्र के दो पुलिस वालों द्वारा मथुरा नामक महिला के साथ बलात्कार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कारियों को नीचे की अदालतों से मिली सजा से यह कहकर बरी कर दिया था कि “पीड़िता ने शोर नहीं मचाया, उसके शरीर पर प्रतिरोध करने के कोई निशान नहीं है, इसलिए लगता है कि या तो जो हुआ, वह सहमति से हुआ होगा या फिर उसने ही इन पुलिसवालों को ऐसा करने के लिए उकसाया होगा” वगैरा-वगैरा। इसके बाद देश भर में फूटे आक्रोश के चलते सुप्रीम कोर्ट को नए आधार तय करने पड़े थे। इस बीच अदालतें तक “ना का मतलब ना ही होता है” और मी टू मुहिम के दौरान इस समझदारी तक पहुँच गयी कि यौन उत्पीड़न की शिकायत के लिए कोई समय सीमा जरूरी नहीं। इन सबके बीच, इन सबके बावजूद यही गोवा की अदालत की महिला जज यह निर्णय सुनाती हैं तो यह थोड़े विचार की मांग करता है। बिना किसी किन्तु परन्तु के कहा जा सकता है कि यह फैसला समाज और न्याय दोनों को बहुत पीछे ले जाने वाला है। हालांकि संतोष की बात है कि मुम्बई हाईकोर्ट ने इस तरह के ज्यादातर उल्लेख हटाने के निर्देश दिए हैं और वह पूरे फैसले की समीक्षा शुरू कर चुका है।
ये दोनों प्रतिनिधि घटनाएं कोई अपवाद नहीं है। ये संबंधित व्यक्तियों ; छतरपुर में पुलिस वालों और गोवा में जज महोदया का निजी विचलन नहीं। ये उस समाजशास्त्र की ताजी प्रतिनिधि हैं, जो पिछले दिनों से आम नियम की तरह सामने आया है। जो यौन उत्पीड़न के लिए उसकी शिकार बनी बच्चियों और वृद्धाओं सहित स्त्रियों को ही दोषी ठहराता है। जो उनके कपड़ों और घर के बाहर निकलने को उनके साथ होने वाले जघन्य बर्ताब की वजह बताता है। जो स्त्री को भोग्या मानता है और जो अपने वर्चस्व के झंडे का डंडा नारी देह पर गाड़कर अपनी विजय का जश्न मनाता है। मनुस्मृति इसे सूत्रबध्द करती है, बाकी अनेक शास्त्र और ग्रन्थ इसके विधि-विधान तय करते हैं, इसे धर्मसम्मत करार देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक देते हैं और समाज व्यवस्था का ढाँचा अपनी मजबूत दीवारें इन्हीं पर खड़ी करता है। इसलिए कार्ल मार्क्स से लेकर लगभग हर समझदार व्यक्ति ने कहा है कि “किसी समाज विशेष के विकास की अवस्था जानने के लिए उस समाज में स्त्रियों की क्या दशा है यह जान लेना काफी है। “
यह समय इस तरह के समाजशास्त्रियों की बहार का समय है। अँधेरे के गणनायक सिर्फ सरकार में नहीं विराजे हैं। वे सामाजिक माहौल में भी कालिख की प्राण प्रतिष्ठा करने में जुटे हैं। इनके बाकी नेताओं की कही की अनसुनी भी कर दें, तो इनके सर्वेसर्वा आरएसएस के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत पति को हर तरह से खुश रखना स्त्री के लिए अनिवार्य बताकर स्त्री-विमर्श को सीधे मनुकाल में पहुंचा चुके हैं। यह धारा खुले खजाने मनुस्मृति के आधार पर राज लाने/ चलाने वालों की धारा है। इसके विचार गुरु गोलवलकर के शब्दों में ; “एक निरपराध स्त्री का वध पापपूर्ण है, परन्तु यह सिद्धांत राक्षसी के लिए लागू नहीं होता।” राक्षसी कौन? राक्षसी वह, जो उनके मनु की परम्परा को न माने। इस प्रसंग में वे एक कहानी सुनाते है, जिसमें शादी के लिए अपने परिवार को राजी करने में असफल प्रेमी अपनी प्रेमिका का गला घोंट कर मार देता है और उसे तनिक भी पीड़ा नहीं होती।
यही समाजशास्त्र था जो गोवा की अदालत की न्यायाधीश महोदया के फैसले का आधार है। यही समय-समय पर सत्ता पार्टी और सत्ता वर्गी समूहों, नेताओं, उनके कुलगुरुओं और उस्तादों के श्रीमुख से बयानों के रूप में झरता रहता हैं। यही है, जिसके चलते भारत में बलात्कार के करीब तीन चौथाई अभियुक्त (2019 में 73 प्रतिशत) बाइज्जत बरी हो जाते हैं। इसलिए तरुण तेजपाल के बरी होने पर असहमति और आक्रोश दर्ज किया जाना जरूरी काम है। इसके साथ, भले मुम्बई हाईकोर्ट ने वे टिप्पणियां और जानकारियां हटा दी हैं, उनकी निंदा और भर्त्सना करना आवश्यक है। किन्तु सिर्फ लकीर पीटने या जो हो चुका, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने या उसकी लानत मलामत करने से ज्यादा कुछ नहीं होगा — दिमागों में भरे उस झाड़-झंखाड़ की सफाई करनी होगी, जो इस सड़े समाज के शास्त्र के लिए फफूँद तैयार करता है। भारत में यह सिर्फ गुजर चुका इतिहास नहीं है — वर्तमान को जकड़े बैठे कार्पोरेटी हिन्दुत्व के शैतान की जान इसी तोते में बसी है। तोते के आगे मत्था टेककर इसकी जहरीली जड़ों में मट्ठा डालने का काम नहीं किया जा सकता।
आलेख : बादल सरोज