November 22, 2024

निकम्मे नहीं हैं, वही कर रहे हैं, जो करना चाहते हैं

शीर्ष पर, खूब सारी ऊंचाई पर — भले वह खुद की असफलताओं के कचरे और उनके चलते हुयी लाखों जिंदगियों की टाली जा सकने वाली मौतों से इकट्ठी हुयी लाशों के हिमालयी ढेर की ऊंचाई क्यों न हो — पहुँच जाने के बाद दिमाग सनक जाता है, विवेक लुप्त हो जाता है और आत्ममुग्धता ऐसा सनाका खेंचने लगती है कि व्यक्ति “आसमाँ पै है खुदा और जमीं पै हम” की परमगति से भी परे ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है कि सारी सीमा रेखायें भूल जाता है। हठधर्मिता इतनी चरम पर जा पहुँचती है कि हर सलाह पर जीभ चिढ़ाने, हर परामर्श को अंगूठा दिखाने के कारनामे दिखाने लगता है। तनिक-सी शिकायत पर कपडे फाड़ने और लट्ठ भांजने लगता है। मोदी की अगुआई वाली सरकार इन आचरणों में महारत हासिल किये हुए है। फिलहाल बानगी के लिए गुजरे सप्ताह के दो ही उदाहरण ले लेते हैं।

एक से ज्यादा हाईकोर्ट और खुद सुप्रीम कोर्ट ने एक से अधिक बार कहा कि “ऑक्सीजन की कमी और जरूरी दवाएं न मिल पाने के चलते हुयी मौतें, सामान्य मृत्यु नहीं हैं, हत्याएं हैं।” एक-दो सुनवाइयों में तो इन्हें नरसंहार तक कह दिया गया। इन अदालतों ने अलग-अलग आदेशों में अलग-अलग प्रदेशों को कितनी-कितनी ऑक्सीजन कितने समय में दे दी जानी चाहिए, इसके आदेश भी दिए। मगर दीदादिलेरी इस हद तक है कि उन पर अमल नहीं किया गया। आखिर में खुद सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और कोविड की महामारी को रोक पाने में सरकार की पूर्ण विफलता, जीवन रक्षक दवाओं की कमी और वैक्सीन की कीमतों के सवाल पर सुनवाई शुरू करते हुए दो काम किये।  पहला सरकार को नोटिस जारी करना, दूसरा 12 सदस्यीय टास्क फ़ोर्स गठित कर ऑक्सीजन सहित सभी आपूर्तियों के मामले की निगरानी स्वयं अपने हाथ में लेना। ऐसा करके सुप्रीम कोर्ट ने हाल के कुछ वर्षों में धरातल से भी नीचे आ गयी अपनी साख को थोड़ा ऊपर लाने की कोशिश के साथ अपने होने का भी अहसास दिलाया। मगर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के जवाब में मोदी सरकार की तरफ से दाखिल 218 पन्नों के शपथपत्र ने देश की इस सर्वोच्च अदालत को भी उसकी हैसियत बताने की जुर्रत की। केंद्र सरकार के एफिडेविट में सुप्रीम कोर्ट से कहा गया कि वह “कार्यपालिका (पढ़ें ; सरकार) की बुद्धिमत्ता पर भरोसा रखे।” मतलब यह कि उसके किये या न किये गए काम में दखलंदाजी न करे। यह सिर्फ चोरी के बाद की जाने वाली सीनाजोरी ही नहीं है — खुद को हर तरह की समीक्षा और आलोचनाओं से परे, अपौरुषेय और अनिंद्य मानने की घोषणा भी है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के जोड़ पर टिके भारत के संविधान की आत्मा पर ही हमला है।
इस एफिडेविट में सरकार ने और भी कई ऐसी बातें की हैं, जो किसी भी संप्रभु देश की सरकार, कम-से-कम लिखा-पढ़ी में तो, कभी नहीं कहती। जैसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य को भारत के नागरिकों का बुनियादी अधिकार बताने वाली धारा 21 का उल्लेख करते हुए सरकार से पूछा था कि वह ऐसे ही आफत के समय के लिए बनाई गयी पेटेंट एक्ट की धारा का इस्तेमाल कर वैक्सीन और अन्य जीवन रक्षक दवाओं का  विराट पैमाने पर उत्पादन क्यों नहीं कर रही है?  सरकार ने इसके जवाब में साफ़ मना करते हुए दावा किया है कि “ऐसा करने से गैट और दोहा और न जाने कहाँ-कहाँ बनी समझदारी का उल्लंघन  हो जाएगा।” मतलब ये कि लाखों लोग मरते हैं, तो मरते रहें, करोड़ों लोगों की मौत की आशंका है, तो बनी रहे; विदेशी दवा और वैक्सीन कंपनियों के मुनाफे और इजारेदारी पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। सीरम इंस्टिट्यूट और बायोटेक जैसी निजी वैक्सीन कंपनियों को सरकार की तरफ से दी गयी विशाल धनराशि को अग्रिम भुगतान बताकर ढांपने की कोशिश की गयी, मगर यह नहीं बताया गया कि ये कंपनियां रोज केवल 25 लाख वैक्सीन ही उत्पादित कर रही हैं — इस हिसाब से भारत की 135 करोड़ आबादी को टीका कब तक मिलेगा? इतना ही नहीं, ठीक अपनी नाक के नीचे हो रही मौतों की सैकड़ों खबरों के बावजूद सरकार के सॉलिसिटर जनरल दावा करते हैं कि “ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है, कि ऑक्सीजन की कमी की वजह से मौतें नहीं हो रही हैं।” गौरतलब है कि यही सॉलिसिटर जनरल 27 अप्रैल को इसी सुप्रीम कोर्ट को दिए एफिडेविट में शपथपूर्वक कह चुके हैं कि “खुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ऑक्सीजन सहित कोविड से मुकाबले की अगुआई और निगरानी कर रहे हैं।” अब जब सारी कमान ब्रह्मा और उनके अमात्य के हाथों में है, तो भला किसी की भी आपत्ति या संदेह करने की हिम्मत कैसे हो सकती है?
इसे किंकर्तव्यविमूढ़ता नहीं कहा जा सकता। यह जनता को मूढ़-मूर्ख बनाया जाना है। इधर गंगा से लेकर यमुना तक नदियों में सैकड़ों लाशें बही चली जा रही हैं, उधर सरकार कभी मरने वालों की संख्या छुपाने की, तो कभी आंकड़ों को अपनी सुविधा से जब ठीक लगे तो संख्या में और जब संख्या असुविधाजनक हो जाए, तो प्रतिशत में जारी करने की चतुराई दिखा रही है। प्याज-लहसुन न खाने वाली वित्तमंत्राणी तो उनसे भी पचास जूते आगे निकल गयी, जब उन्होंने एक के बाद एक 16-18 ट्वीट करके देश-दुनिया को चौंका दिया  कि “ऑक्सीजन उपकरणों और दवाइयों पर लगने वाला 12% जीएसटी तथा वैक्सीन पर लगाया 5% जीएसटी अगर सरकार हटा लेगी, तो ये चीजें और ज्यादा महंगी हो जायेंगी।” हर पैमाने से यह एक अनोखा गणित और नितांत मौलिक अर्थशास्त्र है।  इसे वित्तमन्त्राणी के नाम से पेटेंट करा लिया जाना चाहिए। नोबल नहीं, तो इग्नोबल — वह पुरस्कार जो बेतुकी खोजों और बेहूदगियों के लिए दिया जाता है — मिलना तो पक्का है ही।
सारी दुनिया इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी है कि भारत में यह महामारी आयी नहीं है, बुलाई गयी है। भारत की महामारी पूरी दुनिया की चिंता बन गयी है। सब अपनी ताकत और हैसियत के मुताबिक़ मदद और सहयोग में जुटे हैं। यह दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं है कि इस महामारी को बुलाने वाले कौन है।  मगर यह कहना गलत होगा कि यह सरकार निकम्मी है, कि यह कुछ भी नहीं कर रही है, कि ये नाकारा हैं और कुछ कर ही नहीं सकते। ऐसा कतई नहीं है। चुनावी सभाओं से निबटते ही पहली कैबिनेट मीटिंग में ही बजाय आपदा प्रबंधन पर कोई योजना बनाने के, आईडीबीआई बैंक को निबटाने का फैसला लेकर मोदी सरकार ने साबित कर दिया है कि वे जो करना चाहते हैं, उसे सारी जोखिम उठाकर भी कर सकते हैं।
असल बात यह है कि वे जो किया जाना चाहिए, वह करना ही नहीं चाहते हैं। भारत में गद्दीनशीन आरएसएस की अगुआई वाले कारपोरेटी हिंदुत्व का पूँजीवाद 18वीं और 19वीं सदी  का पूँजीवाद है, जो हजार बारह सौ साल पुरानी मनुस्मृति की संगति में है, जिसके हिसाब से सिर्फ समर्थ को ही है जीवित रहने का अधिकार, जिसके मुताबिक़ देश की प्रगति का मतलब है पूंजीपतियों का उद्धार — उनकी सम्पत्तियों में तेजी से उछाल।  जिनका मानना है कि महामारी और आपदाएं  दरअसल कमाई की अपूर्व सम्भावनाये हैं। ठीक यही बात बिना किसी लोकलाज के इनके प्रधानमंत्री मोदी “आपदा में अवसर” के रूप में सूत्रबध्द भी कर चुके हैं। अम्बानी की 90 करोड़ और अडानी की 112 करोड़ रूपये प्रति घंटा कमाई का सूत्र यही है। नकली इंजेक्शन्स और दवाइयों की कालाबाजारी में पकड़े जा रहे लोगों में से ज्यादातर की इसी “राष्ट्रवादी” संगठन से संबद्धता इसी का एक अन्य आयाम है। ऑक्सीजन, दवाओं और वैक्सीन के लिए खाली खजाने का रोना रोते-रोते बीसियों हजार करोड़ रुपयों के सेन्ट्रल विस्टा और हिटलर जैसी बंकरों से युक्त विराट मोदीमहल बनाने की समझदारी का आधार भी यही है। इस समझदारी के गुणसूत्र का दूसरा रूप था कुम्भ में डुबकी लगाकर कोरोना से मुक्ति पाना, अब इसके अगले चरण में  उत्तराखण्ड में ऋषिकेश की एम्स (ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज) में भारत सरकार के सहयोग से गायत्री मंत्र का उच्चारण कर कोविड व्याधा से मुक्ति पर शोध किया जा रहा है, तो राजस्थान में आरएसएस हर गली-मौहल्ले में हनुमान चालीसा का पाठ करके कोरोना भगाने में जुटा है।
ऐसी ही और जुगाड़ें जनता के बीच अभियान चलाकर “अनंत सकरात्मकता” फैलाने के मकसद से प्लान की जा रही है। अब  इसके लिए भाषणवीर के भाषणों के असर पर ज्यादा भरोसा नहीं बचा, इसलिए सऊदी अरब से दान में आये ऑक्सीजन टैंकर्स पर उनके स्टिकर्स के ऊपर रिलायंस के स्टिकर्स लगाए जा रहे हैं, भोपाल में ठीक हो चुके मरीजों को तीन दिन तक अस्पताल में और रोककर एक साथ डिस्चार्ज करके, उनके साथ फोटू खिंचवाकर, कोरोना की निर्णायक पराजय का एक और एलान करने की योजना बनाई जा रही थी, जिसे भांडा फूट जाने पर बाद में टाल दिया गया। खाली टैंकर्स को ऑक्सीजन एक्सप्रेस बताकर इधर-उधर घुमाकर उनकी शोभायात्रा निकालने की तैयारी है। ताज्जुब नहीं होगा, यदि यह प्लान मई और जून के महीनो को मोक्ष प्राप्ति के सबसे मांगलिक महीनों के रूप में करार देकर मरने वालों के सीधे स्वर्ग पहुँचने की ज्योतिषीय घोषणाओं तक पहुँच जाए। बाकी जो हैं, सो हैं -किन्तु  इस तरह की अफवाहों और प्रचारों में तो सिद्धहस्त हैं ही बटुक।
कुल जमा ये कि ये निकम्मे नहीं हैं; सबके सब लाम पर डटे हैं। जो करना चाहते हैं, उस काम पर डटे हैं। ऐसे में नरसंहार बनी महामारी से खुद की और देश की जान बचाने का रास्ता सिर्फ एक है —  सावधान और सजग रहना और मशाल जलाना।  अंधविश्वास और कट्टरता की काली सुरंग के अंधियारे को चीरने और मौतों में मुनाफ़ा चीन्हने वाले ठगों और भेड़ियों को सबसे ज्यादा डर ऐसी ही रोशनियों से लगता है। मगर ये रोशनियां सलामत हैं, वे और आगे बढ़ रही हैं — यह सन्देश दिया है देश भर में आपदा राहत देते और उसके लिए लड़ते संगठनों और व्यक्तियों के प्रयत्नों ने। अपने पिता को मुखाग्नि देने जेल से जमानत पर आयी नताशा नरवाल ने तनी हुयी मुट्ठी से कल रोहतक में अपने पिता कामरेड महावीर नरवाल को अंतिम सलाम देकर यह संदेश फिर से दोहरा दिया है।
-आलेख : बादल सरोज

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