बिलासपुर की पहचान  रावत नाच महोत्सव

(केशव शुक्ला)
बिलासपुर का रावत नाच महोत्सव लोकसंस्कृति के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाने में।पूर्णतः सफल हुआ है।इसके पीछे संयोजक मंडल का अथक परिश्रम,त्याग और तपस्या  को श्रेय दिया जाना चाहिये।
        बिलासपुर में रावत नाच का आरंभ पौराणिक काल से है।रासेश्वरी पूर्णिमा पर श्रीकृष्ण ने वृंदावन में महारास की रचना की थी जिसमें समस्त गोप-गोपियां,ग्वाल-बालों ने भाग लिया था।रावत नाच कहीं न कहीं उसी महारास का देश,काल, वातवरण के प्रभाव वश परिवर्तित रूप है।
     दशहरा पर से अखरा(अखाड़ा) लगाने के साथ रावत नाच का सिलसिला शुरू होता है जिसमें अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास,नृत्य के कौशल का अभ्यास,साज-सज्जा सहित विभिन्न सोपानों से आने वाली नई पीढ़ी को अवगत कराया जाता है।
               इसके बाद प्रबोधनी(बड़ी) एकादशी से रावत नाच आरंभ हो जाता है जो करीब पंद्रह दिवस लगातार चलता रहता है।यह नाच समूह में होता है।एक-एक समूह में दस से लेकर चालीस-पचास तक नर्तक शामिल रहते हैं।इनके साथ ही लोक वाद्य गंड़वा बाजा बजगरियों का दल भी संग-संग चलता है।
      गाँव के गली-खोरों से नर्तक दल हाट-बाजारों से होकर शहर तक पहुंच है।शहर के प्रमुख शनिचरी बाजार की परिक्रमा करता है जिसे ये ” बाज़ार बिहाना ” कहते हैं।बाज़ार परिक्रमा के बाद ठीक रासेश्वरी पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा ) के आसपास सम्पन्न होता है।
       इस लोकनृत्य की सबसे अद्भुत बात यह है कि अस्त्र-शस्त्र और श्रृंगार का संगम नर्तक में दिखाई पड़ता है।दूसरी ओर नर्तकों के पांवों में घुंघरू बंधे होते हैं।सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने जिस तरह शिष्यों को संत और सिपाही दोनों के रूप में सजाया ठीक उसी तरह रावत नर्तक भी एक साथ सिपाही और नर्तक के रूप में सजे होते हैं।हाथ में तेंदूसार लाठी,ढाल की तरह फरी, सीने पर कवच की तरह कौड़ियों से युक्त जैकेट,सिर पर शिरस्त्राण की तरह पगड़ी बंधी होती है।पगड़ी के ऊपर मोर पंख की कलगी खोंसी हुई होती है।अस्त्र-शस्त्र  जहां सिपाही तो घुँररू एवं साज- श्रृंगार इन्हें नर्तक सिध्द करता है।
        जेठौनी एकादशी से आरंभ यह लोकनृत्य लगभग पंद्रह दिनों तक चला करता है।इस दौरान ये गोपालकों के घरों में दस्तक देते हैं।नृत्य के दौरान बीच-बीच में नर्तक दोहा भी बोलता है।दोहों में सूर, तुलसी ,कबीर आदि संत कवियों के वाणियों के साथ इनके मौलिक दोहे भी होते हैं जो इन्हें आशुकवि के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
       वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ की अनेक कलाएं,संस्कृति,गीत,नृत्य ग्लोबलाइजेशन में फंसकर जहां विलुप्त होने की कगार पर है वहीं रावत समाज अपनी लोककला, संस्कृति,नृत्य तथा अपनी परंपराओं को बचाने में पूर्णतः सफल हुआ है तो इसकी वज़ह यह महोत्सव ही है।
         सन् 1978 में इस लोककला को संरक्षित एवं संवर्धित करने का प्रयास रावत समाज ने आरंभ किया।सबसे बड़ी बात तो इस प्रयास में यह रही है कि नर्तक दलों को उनकी सदियों से चली आ रही परंपरा में कोई छेड़-छाड़ नहीं किया गया।नर्तक दल जब शहर में आते थे सुरक्षा की दृष्टि कोतवाली में अपने दल के मुखिया,शामिल नर्तकों की संख्या, अस्त्र-शस्त्र की संख्या आदि जानकारी दर्ज करा दिया करते थे।उस जमाने में कभी-कभी दलों में खूनी संघर्ष छिड़ जाया करता था।
       थाने से ही महोत्सव की शुरुआत की गई।कुछ वर्षों बाद दर्शकों की भीड़ बढ़ने की वज़ह से महोत्सव को लालबहादुर शास्त्री शाला के मैदान में प्रतिष्ठापित किया गया।तब से लेकर अब छियालीसवां महोत्सव 2 दिसंबर 2023 को होने जा रहा है।इसके लिए शास्त्री शाला का मैदान भव्य रूप से सजाया जा रहा है।
      दो-तीन वर्ष के कोरोना काल से निपटने के पश्चात इस वर्ष रावत नर्तकों में भारी उत्साह दिखाई दे रहा है।महोत्सव का आकर्षण यह है कि शील्ड के साथ महोत्सव समिति लगभग दो लाख रुपये का नगद पुरस्कार बांटेगी।इस बार शील्ड की संख्या कम कर कुल पंद्रह रखी गई है।प्रत्येक नर्तक दल को एक हजार रुपये पुरस्कार के अतिरिक्त दिया जाएगा।

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