November 24, 2024

भाजपा सरकारों को चाहिए की वो ‘जवान’ को टैक्स फ्री कर दें

डॉ. उदय नारकर/ शाहरुख खान की ‘जवान’ ने एक अप्रत्याशित कारनामा कर दिखाया है और वो है राष्ट्रवाद पर एकाधिकार का दावा करने वाले आरएसएस के भक्तों की इस फिल्म ने बोलती बंद कर दी है। कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी जैसी एक विशिष्ट धर्म से धरूना का संदेश बनाने वाली फिल्में बनाने के बाद इन लोगों का हौंसला सातवें आसमान पर था। वे ये मानने लगे थे कि भारत का राष्ट्रवाद उनकी धुन पर नाचता है। उन्होंने बड़े सिलसिलेवार तरीके से भारत के राष्ट्रवाद को विभाजनकारी बना दिया। चूंकि शाहरुख खान मुस्लिम थे इसलिए कुछ लोग उन्हें देशद्रोही करार देने की कोशिश कर रहे थे. भाजपा की राजनीति ने देश के दमनकारी तंत्र का उपयोग करके उनके बेटे को फंसा कर प्रताड़ित किया। ‘जवान’ फिल्म का संवाद,  ‘बेटे को हाथ लगाने से पहले बाप से बात कर’ उस प्रताड़ना को चुनौती देता है। बेशक, चूंकि यह बॉलीवुड का मामला है, इसलिए इस बात का भी ख्याल रखा गया है कि यह मनोरंजन के दायरे में ही रहे।
यह सर्वविदित है कि हिंदी फिल्में एक साथ यथार्थवाद, पलायनवाद, सत्ताधारी विचारधारा और समतावादी सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता का मसालेदार नुस्खा हैं। लेकिन ‘कॉर्पोरेट वर्चस्ववाद -मनुवाद’ के युग में इसकी समतावादी सामग्री गायब हो गई। हिंदी सिनेमा राष्ट्रवाद का गुणगान करता रहा है और साथ ही इसकी आलोचना भी करता रहा है। आजादी के बाद समाजवादी चेतना का ढांचा नहीं टूटेगा, इस सीमा मे फिल्में बनी।  फिल्में ये भी बताती रहीं की फिल्मों मे दिखाया गया राष्ट्रवाद हमारे देश की सामाजिक न्याय से जुड़ी समस्याओं का हल नहीं है। उस समय भी एक वर्ग यह कह रहा था कि ‘पाथेर पांचाली’ भारत को बदनाम करती है। उसी समय ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ जैसे सवाल भी फिल्मों मे उठाए गए।
1950-60 के दशक के बाद काफी सारे बदलाव आए।  खासकर उत्तर भारत पर हवी उच्च वर्णीय वर्चस्वाद ने समतावादी मूल्यों को दरकिनार करना शुरू कर दिया।  कॉर्पोरेट, उसका पैसा और उसका वर्गीय दृष्टिकोण सिनेमा पर हावी हो गया।  आरएसएस वालों ने और उनके समर्थकों की फिल्मों ने सामाजिक समानता और न्याय को बहस से बाहर करने की कोशिशें शुरू कर दीं। ऐसे माहौल में आई फिल्म ‘जवान’ ने उन्हें उसके खास अंदाज मे असमंजस मे डाल दिया।
फिल्म मे दिखाई हिंसा की बात करें तो आज बिना दमदार एक्शन और खून-खराबे के आधुनिक फिल्में बनाना दुर्लभ होता जा रहा है। इसके अलावा, वीडियो गेम अब डिजिटल हिंसा को अधिक दृश्यमान रूप में सामान्य बना रहे हैं। सिनेप्रेमी तेजी से इनके आदी होते जा रहे हैं। ‘जवान’ वैसी नकली हिंसा से भरी  है. लेकिन इसकी अतिशयोक्ति और हिंसा का नकलीपन और भी अधिक चौंकाने वाला है। दर्शक फिल्मों में ऐसी एक्शन से भरपूर हिंसा को देखने के आदी हैं।
हालांकि जवान एक विशिष्ट मारधाड़ फिल्म है, लेकिन जिस फ्रेम मे इसे बनाया गया है वही उसकी खासियत है। फिल्म की कहानी का क्या है? कर्ज के कारण आत्महत्या करने वाले किसान, कॉरपोरेट कंपनियों को कम ब्याज और अधिक ब्याज पर किसानों को दिए जाने वाले कर्ज, वायु प्रदूषण और प्रकृति का अंधाधुंध दोहन ही नहीं बल्कि ध्वस्त होती दिख रही स्वास्थ्य व्यवस्था को ‘जवान’ ने अपनी फिल्म का विषय बनाया है। ‘जवान’ में एक और अंतर है: इसका खलनायक पूंजीवाद की परिधि पर खड़ा अपराधी नहीं है, बल्कि वो पूंजीवाद के केंद्र मे है।  मोदी के नये भारत का नायक दरअसल एक खलनायक है जिसका एकमात्र व्यवसाय सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को रौंदकर सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों से पैसा कमाना है।
आज के दौर मे कुछ दक्षिणपंथी सिनेमा से संदेश देने लगे हैं कि राष्ट्रवाद ही भारत के सामाजिक- आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों का समाधान और वैकल्पिक विकल्प बन सकता है। कुछ फिल्मों ने भाजपा छाप राष्ट्रवाद का प्रचार किया। भाजपा और भाजपा समर्थकों ने  इसके बदले मे उन फिल्मों का जमकर बढ़ावा दिया, टैक्स फ्री कर दिया क्योंकि राष्ट्रवाद का ऐसा संस्करण उसकी राजनीतिक विचारधारा के अनुकूल है। ऐसे समय में अनुभव सिन्हा की ‘मुल्क’ इतनी अहम फिल्म थी कि जिसमे कहा गया कि भारत पर भारतीय मुसलमानों का भी उतना ही अधिकार है. अनुभव सिन्हा ने साफ कर दिया, हां ये उनकी देशभक्ति और राष्ट्रवाद है.
वास्तव में, भारतीय राष्ट्रवाद भारतीय सिनेमा के मूल ताने-बाने में व्याप्त है। वह राष्ट्र निर्माण के हर चरण को अभिव्यक्त करता रहा है। इसने अपनी ताकत और कमजोरियां दिखाई हैं. चाहे उन्हें इसके अंतर्निहित विरोधाभास के बारे में स्पष्ट रूप से पता था या नहीं, लेकिन एक मामले में यह राष्ट्रवाद असंदिग्ध था। ओ ये कि यह राष्ट्रवाद तब तक जीवित नहीं रह सकता जब तक यह समावेशी न हो। वह इस बात पर जोर देता रहा है कि जो राष्ट्रवाद अमर अकबर एंथोनी को एक सूत्र में बांधता है वही वास्तविक भारतीय राष्ट्रवाद है।
बॉलीवुड में बहुत कम सुपरस्टार्स ने ‘मुस्लिम’ शाहरुख खान जितनी मुद्दों पर आधारित फिल्में की हैं। शाहरुख खान स्टार युग के सुपरहीरो हैं. उनके ऑन-स्क्रीन और असल जिंदगी का मिश्रण तो होना ही था। वो  भारी खर्च से खड़ी फिल्म उद्योग का एक अभिन्न हिस्सा है। फिर भी शाहरुख अपनी फिल्मों के जरिए भारतीयता पर मुहर लगाते रहे हैं. ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ लीजिए, ‘स्वदेश’ लीजिए या ‘चक दे इंडिया’ लीजिए। यह भारतीय राष्ट्रवादियों के बीच रचनात्मकता की आवश्यकता को रेखांकित करता है। झूठी देशभक्ति से भरे स्वघोषित ऊंची जाति के भारतीय अमेरिका जाकर अपनी भारतीय पहचान प्रदर्शित करने के लिए सत्यनारायण के अनुष्ठान करते हैं, जबकि फिल्म ‘स्वदेस’ का नायक अमेरिका में नासा की ऊंची वेतन वाली नौकरी छोड़कर भारत आकार यहाँ की समस्याओं से जुड़कर यहीं का हो जाता है। उसका तारा ये तारा वो तारा हर तारा है। हमेशा विश्वगुरु होने का दंभ भरने वालों के दिमाग के बाहर की ये बात है।
‘चक दे इंडिया’ के कबीर खान संदेश दे रहे हैं कि महिलाओं को भी तिरंगा झंडा फहराने का अधिकार है. कबीर खान हमें याद दिलाते हैं कि ‘चक दे इंडिया’ की भारतीयता सिर्फ गंगा के किनारों तक सीमित नहीं है, यह सभी राज्यों से बनी टीम है. इन राज्यों के बिना भारत की टीम नहीं बन सकती, इसीलिए भारत एक संघीय-राज्य है।

मोदी के राज्य में ‘पठान’ नाम से सिनेमा रिलीज करना अपने आप में एक राष्ट्रवादी कृत्य है. यदि सर्वसमावेशी राष्ट्रवाद के लिए जगह नहीं रखी गई तो मुस्लिम भारतीयों को बार-बार दोहराना पड़ रहा है कि वे देशभक्त हैं। वर्तमान स्थिति में राष्ट्रवाद और देशभक्ति के प्रचलित नियमों का उपयोग करते हुए, शाहरुख ने हिंदू राष्ट्रवाद के समानांतर एक राष्ट्रवादी ‘पठान’ फिल्म बनाई।
‘जवान’ का राष्ट्रवाद अधिक तीव्र है और इसलिए अधिक वास्तविक है। इस फिल्म का नायक किसी अजनबी से नहीं लड़ता, वो किसानों के शोषण के खिलाफ लड़ता है।  वह आम लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए लड़ता है। इसके अलावा, यह पर्यावरणीय क्षति और प्रदूषण से भी लड़ता है जिसके कारण लोगों को ज़हरीली हवा मे साँस लेनी पड़ती है। यह राष्ट्रवाद है जो सामाजिक यथार्थ से सुसंगत है। यह एक ऐसा राष्ट्रवाद है जो ईमानदार आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है। दूसरी तरफ ये राष्ट्रवाद हमारी लोकतान्त्रिक स्थिति पर सवाल उठाता है और इस बात पर जोर देता है कि लोकतंत्र जवाबदेही पर आधारित होना चाहिए। एक किसान की आत्महत्या इस कहानी का शुरुआती बिंदु है। दूसरा प्रस्थान बिंदु आम लोग हैं, जो ऑक्सीजन कमी से अस्पताल मे डैम तोड़ देते हैं।  घुसपैठ करना. तीसरा बिंदु निजी भारतीय पूंजीपति हैं जो सेना को खराब गुणवत्ता वाली राइफलों की आपूर्ति करते हैं। चित्र तैयार है. ऐसे कई बिंदु मिलकर इस बड़े ‘राष्ट्रवादी’ कैनवास का निर्माण करते हैं।
बेशक, इस फिल्म की तुलना सत्यजीत राय से नहीं की जा सकती, न ही मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल आदि से। आंकड़ों से पता चलता है कि यह 300 करोड़ बजट कि यह फिल्म एक ब्लॉकबस्टर है। पहले हफ्ते में ही उन्होंने सात सौ करोड़ की कमाई कर ली है! वास्तव में, मोदी को भारतीय पूंजी का फायदा हो इसलिए लोगों को सिनेमा देखने और तालियां बजाने की भावपूर्ण अपील करनी चाहिए थी।
हालांकि, भारी मुनाफा कमा रही इस फिल्म ‘जवान’ ने एक काम पूरी गंभीरता से किया है।  इस फिल्म ने उस व्यवस्था पर सवाल उठाया है जो सवाल पूछने वालों को देशद्रोही मानती है। अस्पतालों में गरीबों को ऑक्सीजन देने वाले ‘डॉक्टर’ को देशद्रोही कहने वालों से सवाल पूछा गया है. यह निर्देशक एटली या शाहरुख खान की गलती नहीं है, अगर किसी को याद है कि चिकित्सा आपूर्ति पर सवाल उठाने पर डॉ कफील खान को जेल में क्यों रखा गया था। और कोरोना काल के दौरान गुजरात और अन्य राज्यों में नकली वेंटिलेटर की आपूर्ति और तहलका घोटाला और राफेल सौदा करने वाले कौन हो सकते हैं, इस बारे में विचारोत्तेजक प्रश्न पूछे गए हैं।, ये सवाल सोचने को मजबूर करता है,  कि भारत की जेलों में और कितने निर्दोष लोग भरे हुए हैं। फिल्म के अंत में, नायक एक डायलॉग मारता है, “हम जान लगा देते हैं देश के लिए, तुम्हारे जैसे देश बेचनेवालों के लिए नहीं”।  यह वाक्य सुनकर अगर किसी को प्रधानमंत्री मोदी के लिए लिखा गाना ‘आया देशविक्रेता देखो, आया देशविक्रेता’ याद आ जाए तो इसमें दर्शकों की गलती नहीं है।
जैसे ‘पठान’ का एक राजनीतिक उद्देश्य था, वैसे ही ‘जवान’ का भी है। फिल्म के कई और मायने भी निकले जा सकते हैं । मुंबई में एक कार्यक्रम में शाहरुख ने खुलकर कहा, फिल्म 26 जनवरी को लॉन्च हुई और कृष्ण जन्माष्टमी पर रिलीज हुई। (वैसे, नायक का जन्म जेल में होता है और बुरी ताकतों का नाश करते हैं)। उन्होंने इवेंट में एक और खबर की घोषणा की है। देश छोड़ विदेश भागने वालों के बारे में उनकी फिल्म ‘डंकी’ इस क्रिसमस पर रिलीज होगी। यदि भारत के लिए राष्ट्रवाद अनिवार्य है, तो उसका ‘समावेशी’ होना भी उतना ही आवश्यक है।

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