कॉमरेड वी.एस. अच्युतानंदन : एक कम्युनिस्ट का महाकाव्यात्मक जीवन
(आलेख : निधीश जे. विलट्ट, अनुवाद : संजय पराते)
अपने हाई स्कूल के दिनों में मैंने प्रसिद्ध मलयालम लेखक थकाझी निधीश जे. विलट्टका क्लासिक उपन्यास “रंदीदंगाझी” पढ़ा था, जो मुझे अच्छी तरह से याद है। इस उपन्यास में मुख्यतः दलित खेतिहर मज़दूरों और गरीब बंटाईदारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और केरल के धान के कटोरे के रूप में प्रसिद्ध अलपुझा के कुट्टनाड में कम्युनिस्टों द्वारा आयोजित साम्राज्यवाद-विरोधी, ज़मींदारी-विरोधी प्रतिरोध का चित्रण किया गया है। यह उपन्यास मुख्यतः 1940 के दशक के कृषि संबंधों को दर्शाता है। मेरी पीढ़ी के छात्रों के लिए, “रंडीदंगाझी” में चित्रित ज़मींदारों द्वारा मेहनतकश लोगों पर शोषण और हिंसा के चरम रूप, उदाहरण के लिए : खेतिहर मज़दूरों और गरीब किसानों पर हृदयविदारक और सामान्यीकृत यौन हिंसा का मामला, अकल्पनीय थे। जब मैंने 1999 में यह उपन्यास पढ़ा था, तब केरल में वर्गीय सहसंबंध इतने बदल चुके थे कि उपन्यास में वर्णित घटनाएँ हमें कहीं और की लग रही थीं। सामाजिक संबंधों में यह युगांतकारी बदलाव कम्युनिस्टों द्वारा “कृषि क्रांति” को आगे बढ़ाने के लिए किए गए अथक मेहनत का परिणाम था।
5 दिसंबर 1922 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की चौथी कांग्रेस में, पूर्वी क्षेत्र के सवालों पर आयोग ने “पूर्वी क्षेत्र के सवालों पर शोध” शीर्षक से एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया था। लेनिन की राजनीतिक देखरेख में, इस प्रस्ताव में एक बुनियादी तर्क दिया गया था : “औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक देशों की कम्युनिस्ट मज़दूर पार्टियों के पास दो कार्यभार हैं : राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने के उद्देश्य से बुर्जुआ-लोकतांत्रिक क्रांति के कार्यभार के सबसे क्रांतिकारी समाधान के लिए संघर्ष करना, और साथ ही राष्ट्रवादी बुर्जुआ-लोकतांत्रिक खेमे के सभी अंतर्विरोधों का लाभ उठाते हुए, मज़दूर-किसान जनता को उनके विशिष्ट वर्ग हितों के लिए संघर्ष में संगठित करना।”
कॉमरेड वीएस अच्युतानंदन के निधन के साथ — जिन्हें वीएस के नाम से जाना जाता है — केरल के मेहनतकश लोगों ने बोल्शेविकों की एक दुर्लभ प्रजाति से अपने अद्वितीय युद्ध-प्रशिक्षित कॉमरेड को खो दिया है, जो 1940 में अविभाजित सीपीआई में शामिल हुए थे, ताकि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के “दोहरे कार्यभार” के सिद्धांत को आगे बढ़ाया जा सके। वीएस अक्सर बताया करते थे कि 1917 की बोल्शेविक क्रांति और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के काम ने उनकी पीढ़ी को कैसे प्रेरित किया, जो 1929 की आर्थिक महामंदी के दुख और भयावहता को देखते हुए बड़ी हुई थी। 1923 में एक पिछड़ी जाति के बंटाईदार किसान परिवार में उनके जन्म ने उन्हें औपनिवेशिक क्रूरताओं के साथ-साथ रक्तपिपासु सामंती शोषण, इसके हिंसक दमन और जातिगत भेदभाव का अनुभव कराया। 102 वर्षों की अपनी लंबी यात्रा में जहां उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री और भारत की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआईएम के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक बनने का सफर तय किया, वहीं वी.एस. एक कट्टर साम्राज्यवाद-विरोधी व्यक्ति बने रहे, जो विश्व के क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध थे।
मैंने अपने कम्युनिस्ट नाना से यह जाना कि कुट्टनाड में जमींदारी हिंसा —सामंती और पूंजीवादी— को समाप्त करने में वीएस की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसका वर्णन “रंदीदंगाझी” उपन्यास में किया गया है। इससे मुझे गहराई से वीएस की महानता से अवगत होने का मौका मिला। केरल में अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही, मलयालम समाचार पत्रों के एक उत्साही पाठक के रूप में, मुझे यह भी याद है कि कैसे केरल के दो प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों — मलयाला मनोरमा (जो स्वदेशी सीरियाई ईसाई पूंजीपति वर्ग द्वारा शुरू किया गया) और मातृभूमि (जो पतनशील उच्च जाति के हिंदू जमींदारों द्वारा शुरू किया गया) — ने वीएस को सबसे बड़े अवरोधक के रूप में खलनायक के रूप में चित्रित किया था। पूंजीपति वर्ग और जमींदारों के लिए, वीएस विकास के नवउदारवादी मॉडल में बाधा डाल रहे थे, जिसके प्रति वे एक वर्ग के रूप में प्रतिबद्ध थे। वीएस के लिए किसानों, खेतिहर मजदूरों, बागान मजदूरों और अन्य सभी मेहनतकश लोगों की आजीविका के साथ-साथ पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखना नवउदारवाद का पोस्टर बॉय बनने से ज्यादा महत्वपूर्ण था।
केरल में अविभाजित सीपीआई के संस्थापक सचिव कॉमरेड पी कृष्णा पिल्लई थे, जिन्होंने वीएस को पार्टी में भर्ती किया था। उनके द्वारा वीएस को कुट्टनाड भेजने का फैसला लिया गया। इस फैसले ने उभरते खेतिहर मजदूरों और केरल में ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के आंदोलन की दिशा बदल दी। एस्पिनवॉल कंपनी में अपने काम के दौरान आधुनिक नारियल जटा फैक्ट्री के मजदूरों को संगठित करने के लिए वे शुरू में प्रशिक्षित हुए, लेकिन वीएस ने जल्दी ही खेतिहर मजदूरों का दिल और दिमाग भी जीत लिया। 1940 के दशक की शुरुआत में जब वीएस कुट्टनाड गए, तो कृषि में पूंजीवादी निवेश कई क्षेत्रों में फल-फूल रहा था। 1943 तक, वीएस कुट्टनाड के कावलम और कुन्नुमल इलाकों में केंद्रित हो गये। इस क्षेत्र में जोसेफ मुरिकन, चालायिल पणिक्कर और मनकोम्बु स्वामी जैसे बड़े जमींदार थे। पूंजीवादी निवेश के बावजूद, जमींदारों ने “संलग्न श्रम” की प्रणाली के माध्यम से कृषि दासों के सामंती दमन के भयावह तरीकों को जारी रखा था।
यह एक कटु सामाजिक-राजनीतिक विरोधाभास था कि पूंजीवादी कृषि पद्धति के आगमन से, अमानवीय दमनकारी दासता और जाति व्यवस्था की प्रतिक्रियावादी संस्था के पुरातन सामंती बंधन से मुक्ति पाने के बजाय, ये क्रूर राक्षसी चरित्र शैतानी तीव्रता के साथ और भी मज़बूत होते गए। यह ब्रिटेन में कपड़ा मिलों के औद्योगिक उछाल जैसा था, जिसने अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में दास प्रथा को समाप्त करने के बजाय, उसे फलने-फूलने दिया, ताकि सबसे सस्ते दामों पर कच्चा कपास मिल सके! बाद में, अमेरिका के उत्तरी राज्यों में रेलवे के विकास ने ही उस गृहयुद्ध की वस्तुगत पृष्ठभूमि तैयार की, जिसने दक्षिणी राज्यों में दास प्रथा को समाप्त किया!
उक्त ‘संलग्न मजदूर’ मुख्यतः पुलाया और पराया दलित जातियों से आते थे। संलग्न मजदूरी की अत्यधिक शोषणकारी व्यवस्था ने बहुत ही कम मजदूरी पर ज्यादा काम का बोझ सुनिश्चित किया था। एलेक्स जॉर्ज लिखते हैं कि “जबरन आर्थिक निर्भरता, घर से बेदखल करने की धमकी, शारीरिक हिंसा और जाति प्रथा के सामाजिक रूप से निर्योग्य करने वाले नियमों द्वारा अधीनता” — वे तरीके थे, जिनके द्वारा जमींदार संलग्न मजदूरी को नियंत्रित करते थे।
खेत मजदूरों को संगठित करने के विचार से वीएस ने संलग्न मजदूरों को संगठित करने में आने वाली चुनौतियों का दस्तावेजीकरण किया। ये संलग्न मजदूर मानते थे कि उन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना और यहाँ तक कि मार डालना ज़मींदारों का स्वाभाविक अधिकार है। वीएस ने लगातार उनमें जोश भरा, उनमें लड़ने की भावना जगाई और धैर्यपूर्वक उन्हें ज़मींदारों द्वारा उनका अधिकतम शोषण करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले दुर्भावनापूर्ण तरीकों के बारे में बताया। अपने व्यवस्थित प्रयासों से, वीएस उन्हें उत्साहित करने और समझाने में सफल रहे। अंततः, ग्रामीण सर्वहारा वर्ग, यानी खेत मजदूर वर्ग का आंदोलन कुट्टनाड में स्थापित हुआ और फिर ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के विस्तार के रूप में अलप्पुझा और केरल के विभिन्न हिस्सों में फैल गया। पुन्नप्रा-वायलार विद्रोह में खेत मजदूरों ने भी बहादुरी के साथ भागीदारी की।
1948 में जब कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा, तो ज़मींदारों ने अलप्पुझा में “सन्नाधा सेना” नामक एक स्वयंसेवी दल बनाया, ताकि खेतिहर मज़दूरों और बंटाईदार किसानों के खिलाफ हिंसा फैलाई जा सके। रिवाज़ के अनुसार, मेहनतकशों के घरों की नवविवाहित महिलाओं को तीन महीने तक “कोचा” जैसे ज़मींदारों के साथ रहना होता था। राजनीतिक रूप से जागरूक ग्रामीण सर्वहारा वर्ग ने इन प्रथाओं का विरोध किया। एन के कमलासन एक कम्युनिस्ट खेतिहर मज़दूर, जिसका नाम “गोपालन” था, की कहानी सुनाते हैं, जो सामंती हिंसा का जुझारू प्रतिरोध कर रहा था। ज़मींदार कोचा के लेफ्टिनेंट नलुकेट्टुंगल रमन ने पुलिस की मिलीभगत से गोपालन के परिवार को निशाना बनाया। पुलिस और ज़मींदारों के गुंडों ने गोपालन और उसकी माँ को नंगा कर दिया और दोनों को आमने-सामने बाँध दिया। गोपालन की पत्नी के साथ उसके सामने बलात्कार किया गया। बदले में, रमन को मज़दूरों ने मार डाला।
‘कलकत्ता थीसिस’ के वर्षों के दौरान कम्युनिस्ट विरोधी क्रूर हिंसा ग्रामीण सर्वहारा वर्ग, यानी खेतिहर मजदूरों के आंदोलन को खत्म नहीं कर सकी। वीएस द्वारा स्थापित कुट्टनाड स्थित खेत मजदूरों के आंदोलन, त्रावणकोर कार्शका थोझिलाली यूनियन (टीकेटीयू), पर 1946 में पुन्नप्रा-वायलार विद्रोह के तुरंत बाद प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस चरण में कठिन भूमिगत गतिविधियों ने टीकेटीयू को और अधिक जुझारू बना दिया। इस संगठन पर प्रतिबंध 1951 में ही हटाया गया। उस वर्ष, वीएस ने कावलम में खेत मजदूरों का एक ऐतिहासिक विशेष सम्मेलन आयोजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस सम्मेलन ने एक व्यापक मांग पत्र भी स्वीकृत किया, जिसने श्रम विभाग को एक त्रिपक्षीय सम्मेलन और समझौता करने के लिए मजबूर किया। बहरहाल, बड़े ज़मींदारों ने मज़दूरी और काम करने की शर्तों पर हुए इस समझौते को लागू करने से इंकार कर दिया। इससे जुझारू हड़तालों में तेज़ी आई। वीएस के दस्तावेज़ों के अनुसार, 1950 और 1957 के बीच कुट्टनाड में 4279 श्रमिक विवाद हुए।
सर्वहारा वर्ग के जुझारूपन का नया रूप जोसेफ मुरिकन और केएम कोरा जैसे “डूबान क्षेत्र के राजाओं (बैकवाटर्स किंग) के विरुद्ध छेड़े गए जुझारू संघर्षों में स्पष्ट दिखाई दिया। केएम कोरा, जो एक बड़े ज़मींदार होने के साथ-साथ कांग्रेस नेता और त्रावणकोर-कोचीन मंत्रिमंडल में तत्कालीन कृषि मंत्री भी थे, के विरुद्ध 1956 के ऐतिहासिक मज़दूरी संघर्ष ने ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के जुझारूपन को प्रदर्शित किया। केएम कोरा ने हड़ताली मज़दूरों के विरुद्ध पुलिस और गुंडों की हिंसा का सहारा लिया। तीखी हिंसा भी संघर्ष को तोड़ नहीं सकी और अंततः कोरा को मज़दूर वर्ग के दावे के आगे झुकना पड़ा। बाद में कोरा ने एक वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता से शिकायत की कि “हमें खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाने में कोई आपत्ति नहीं है ; यह उनकी अकड़ है, जिसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। ज़रा उन्हें देखिए — मूँछों के साथ, घुटनों तक धोती मोड़े, और तौलिये को पगड़ी में लपेटे हुए, अकड़ते हुए।” यह बदलते वर्गीय संबंधों का स्पष्ट संकेत था।
कोरा के शब्दों से यह स्पष्ट था कि नया पूंजीवाद दुर्भावना से ग्रस्त एक उभयचर जानवर था, जो पतनशील सामंतवाद से आदिम कृषि पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा था, जो उन्मत्त लाभ से प्रेरित था, उसमें अवसरवादी ढंग से मजदूरों को काम पर रखने की लागत कम करने की सहज प्रवृत्ति थी और इसलिए उसने सामंती क्रूरताओं को चरम शोषण के साधन और अमानवीय उत्पीड़न के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा था। इसलिए, एक क्रांतिकारी संगठन के लिए यह आवश्यक था कि वह एक ही झटके में नवोदित कृषि सर्वहारा वर्ग को “स्वयं में वर्ग” और “स्वयं के लिए वर्ग” के रूप में जन्म दे। अविभाजित भाकपा और उसके अग्रणी कैडर कॉमरेड वीएस ने कुट्टनाड में इसे संभव बनाया। यह एक अनूठा परिवर्तन था। इसने केरल के खेतिहर मजदूर वर्ग को राज्य में राजनीतिक रूप से जागरूक सर्वहारा वर्ग का एक दुर्लभ पक्ष बना दिया। यह अनुभव तमिलनाडु के तंजावुर, महाराष्ट्र के वारली क्षेत्र और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्र में कम्युनिस्टों के अनुभव के समान था। लेकिन यह उन लोगों से अलग था, जो आदिम कृषि पूंजीवाद के खिलाफ अथक लड़ाई का परिणाम था, न कि ठेठ सामंतवाद के खिलाफ।
वी.एस. के नेतृत्व में ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के जुझारू आंदोलन ने “केरल के एकीकृत राज्य” के गठन और 1957 में ई.एम.एस. नंबूदरीपाद के नेतृत्व में प्रथम कम्युनिस्ट मंत्रिमंडल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1959 में पारित “कृषि संबंध विधेयक”, जिसने केरल की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया, में झोपड़ीवासियों को अधिकार देने के प्रावधान थे। 1957 में अलप्पुझा जिले में औद्योगिक संबंध समिति (आईआरसी) के गठन के अलावा, ई.एम.एस. सरकार ने 1958 में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (भारत) 1948 के प्रावधानों को कृषि कार्यों तक भी लागू किया। ई.एम.एस. की नई पुलिस नीति —श्रम विवादों में हस्तक्षेप न करना — ने भी खेतिहर मजदूरों का आत्मविश्वास बढ़ाया।
ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने के कम्युनिस्टों के प्रयास को विफल करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद की सहायता से बुर्जुआ-ज़मींदार वर्ग द्वारा एक प्रतिक्रांतिकारी लामबंदी देखी गई। ईएमएस मंत्रालय के खिलाफ कुख्यात “विमोचन संग्राम” में दलित खेतिहर मज़दूरों पर लक्षित हमले किए गए और उन्हें जातिवादी गालियाँ दी गईं। ज़मींदारों की सेनाएँ चिल्ला उठीं, “हम तुम्हें हमको सामंत कहने पर मजबूर कर देंगे ; हम तुम्हें पत्तों का दलिया पिलाएँगे ; दलित को खेत जोतना पड़ेगा है और चाको (उच्च जाति का कांग्रेसी नेता) ज़मीन पर राज करेगा।” 1959 में ईएमएस सरकार की बर्खास्तगी के बाद के महीनों में मेहनतकशों को तीखे हमलों का सामना करना पड़ा।
वी.एस. के नेतृत्व में कृषि श्रमिकों, अर्थात् ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के बीच किए गए श्रमसाध्य संगठनात्मक और वैचारिक कार्य ने 1967 में दूसरे ईएमएस मंत्रालय के गठन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1968 में खेत मजदूरों के लिए राज्य-स्तरीय पृथक संगठन, केरल राज्य कार्शका थोजिलाली संघ (केएसकेटीयू) के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, जो अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन (एआईएडब्ल्यूयू) से संबद्ध है। 1969 में ईएमएस मंत्रालय के पतन के बाद, केएसकेटीयू ने एआईकेएस के साथ मिलकर “मिच्छा भूमि संग्राम” नामक ‘अतिरिक्त भूमि पर दावा आंदोलन’ का नेतृत्व किया।
इस आंदोलन ने हदबंदी से ऊपर की अतिरिक्त भूमि की पहचान की और सरकार को उसका विवरण दिया। इस आंदोलन का तात्कालिक उद्देश्य अतिरिक्त भूमि पर दावा आंदोलन (“मिच्छा भूमि संग्राम”) था। केएसकेटीयू और एआईकेएस के कार्यकर्ताओं ने बहादुरी से ज़मींदारों के नियंत्रण वाली अतिरिक्त भूमि पर कब्ज़ा किया और नीचे से इस आंदोलन के दबाव ने भूमि सुधारों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को गति दी। इसके परिणामस्वरूप राज्य के कई हिस्सों में आरएसएस कार्यकर्ताओं के साथ हिंसक शारीरिक झड़पें भी हुईं, जो ज़मींदारों के दक्षिणपंथी गुंडों के रूप में काम करते थे। ज़मींदारों और राज्य तंत्र के साथ इस राजनीतिक संघर्ष और सड़क पर हुई लड़ाईयों ने केरल के लोकतांत्रिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया।
वीएस वैश्विक वित्त के बढ़ते प्रभाव और कृषि प्रश्न से उसके संबंध के भी गंभीर प्रेक्षक थे। उन्होंने राजनीतिक अर्थव्यवस्था में नवउदारवादी मोड़ के विरुद्ध लगातार लेखन और आंदोलनों का नेतृत्व किया। धान और आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए उनके बहु-प्रलेखित संघर्षों के साथ-साथ रबर जैसी नकद कृषि फसल की नवउदारवादी लूटपाट का विरोध करने के लिए उनके वैचारिक और संगठनात्मक आलोचनात्मक हस्तक्षेप बहुत महत्वपूर्ण हैं। अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन के अंतिम चरण में, वे “भूमि सुधार के अगले चरण” की आवश्यकता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे, जहाँ मजदूरों और किसानों की वैज्ञानिक रूप से डिज़ाइन की गई जीवंत उत्पादन और विपणन सहकारी समितियाँ उन्नत राजनीतिक-आर्थिक अंतर्वस्तु और उन्नत रूपों के साथ एक मजबूत मजदूर-किसान गठबंधन की नींव का काम करेंगी ; और कृषि क्रांति को उसकी पूर्णता तक ले जाएँगी।
लाल सलाम, कॉमरेड वीएस!
*(लेखक स्वतंत्र लेखन से जुड़े हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।