January 15, 2025

आहार ग्रहण विधि : कैसे खाना चाहिए ? भोजन ग्रहण करना एक शारीरिक क्रिया ही नहीं बल्कि एक मानसिक क्रिया भी है – योग गुरु महेश अग्रवाल

भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र  स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि भोजन ग्रहण करना एक शारीरिक क्रिया ही नहीं बल्कि एक मानसिक क्रिया भी है। क्योकि भोजन के अवयव सिर्फ वहीं नहीं हैं जो हमारे पाचन तंत्र में मुँह से पहुंचायें जाते हैं वरन् भोजन ग्रहण करते समय मनोभाव भी काफी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं जिसमें शरीर की समस्त इंद्रियों के द्वारा आहार के रूप, रस, गुण, गन्ध इत्यादि का भी रसास्वादन लेते हैं। अतः जैसे-तैसे हड़बड़ी में, उद्वेलना की स्थिति भोजन लेना हमेशा निषेध है क्योंकि संतुलित और पुष्टिकारक भोजन भी अगर शांत मनोभावों से न लिया गया हो तो उसके सारे उपयोगी तत्व विनष्ट हो जाते हैं बिना उपयोग में लाए शरीर से उत्सर्जित कर दिए जाते हैं।
योग गुरु अग्रवाल ने बताया कि  देखा गया है अगर शुद्ध-शांत मनोभाव से सीधा-साधा सरल, सादा भोजन भी ग्रहण किया जाए तो शरीर इन्हीं भोजनों से अपने सभी पोषक तत्वों को प्राप्त करने में सक्षम है। ठीक सामने टेबुल पर बैठा दूसरा व्यक्ति उसी भोजन को अगर सकारात्मक भाव से प्रकृति या प्रभु द्वारा प्रदत्त प्रसाद के रूप में नहीं ग्रहण करता है तो उस व्यक्ति के शरीर में कुपोषण के सारे लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं। इसलिए भोजन करना एक साधना है। इस साधना को फलवती बनाने के लिए कुछ निर्देश लाभकारी हैं – 1. भोजन करने के पूर्व शौचादि से निवृत्त होकर हाथ-पांव मुंह धोकर शांति पूर्वक सुखासन में थोड़ी देर बैठना चाहिए। 2. और शांत भाव से शांति मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए – ऊं सह नाववतु । सह नो भनक्तु । सहवीर्य करवावहे । तेजस्वि ना वधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॐ शान्तिः शान्तिः । शान्तिः ॥ तत्पश्चात् इसे मंत्र का जाप भी साथ में कर लेना लाभप्रद है : ऊं ब्रह्मापेणं ब्रह्म अविब्रह्मग्नो ग्रह्मण हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना || इस मंत्र में निम्नलिखित भावना अन्तर्निहित है। लोक तथा पुरूष (ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड) मनुष्य तथा पर्यावरण, समान प्रकृति वाले हैं। मनुष्य संपूर्ण ब्रह्माण्ड की एक इकाई है। उसमें वे सभी (पंचमहाभूत + ब्रह्मा) उपस्थित हैं जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड की संरचना करते हैं। पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड आपस में एक दूसरे से संपर्क बनाए रखते हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं इसमें भोजन एक महत्वपूर्ण घटक हैं जो पिण्ड और ब्रह्माण्ड के बीच साम्यावस्था बनाए रखता है। अतः सही अर्थों में भोजन करना एक महत् साधना है। 3. मौन-पालन वेदों में यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि भोजन करने के समय मनुष्य को बिल्कुम मौन रहना चाहिए। इसके विपरीत आजकल के आधुनिक जमाने में खाने के समय ही व्यापार, नाना प्रकरेण प्रसंग छेड़े जाते हैं जो सर्वथा वर्जित है। 4. भोजन करने के समय कच्चे पक्के भोजनों को एक साथ नहीं करना चाहिए क्योंकि एक साथ कच्चे-पक्के विविध व्यंजन लेने पर पेट के पाचक रस भ्रमित हो जाते हैं, क्योंकि पेट एक साथ ही सब तरह के पाचक रसों को उत्पन्न करने में तुरंत सक्षम नहीं हो पाता, इसलिए जहां तक संभव हो भोजन सरल एवं बहुमिश्रितव्यंजन रहित हों तो अच्छा है।
5. खाते-खाते लगातार पानी नहीं पीते रहना चाहिए अगर आवश्यकता हो तो भोजन को गीला करने के लिए एकाध घूंट पानी पीना हानिकारक नहीं है। लेकिन खाने के तुरंत बाद बहुत ज्यादा पानी पी लेना हानिकारक है। क्योंकि इससे पाचक रस की तीव्रता कम हो जाती है और कहा जाता है कि ऐसे लोग मोटे भी ज्यादा हो जाते हैं। आयुर्वेद के कुछ खास ग्रन्थों के आधार पर जल ग्रहण करने के खास विधान हैं : भोजन के पहले क्षार मिश्रित जल का सेवन करने से आमाशय रस अधिक निकलता है। भोजन के प्रारंभ में किंचित नींबू के रस, सेंधा नमक और अदरक के सेवन से आमाशयिक रस-नाव अधिक होता है। जल मिश्रित स्वल्प शराब से भी आमाशय में उत्तेजना आती है।
निर्बल आमाशय वाले रोगी को भोजन के प्रारंभ में शुष्क पदार्थ का सेवन करना चाहिए जिससे उचित मात्रा में आमाशयिक रस का स्राव हो। तरल पदार्थ के अधिक सेवन से रसस्त्राव में न्यूनता होती है। जिनकी पाचनशक्ति कमजोर हो उनको भोजन के साथ स्वल्प जल पीना चाहिए। भोजन के एक घंटे के बाद जल पीना उत्तम है। अग्निमांध और अपचन में भोजन के आरंभ में नींबू के रस और नमक के साथ अदरक, भोजन के अन्त में तक्र (मट्ठा), भोजन के साथ लहसुन, अनारदाना और पोदीना की चटनी एवं भोजन के दो-तीन घंटे के बाद नींबू का रस या सन्तरे
का रस आदि लेना चाहिए। 6. भोजनोपरांत 5 से 10 मिनट तक वज्रासन में बैठना चाहिए क्योंकि भोजन के बाद किसी दूसरे आसन का अभ्यास वर्जित है। वज्रासन से वज्र नाड़ी सक्रिय हो जाती है जो अन्त में मणिपुर चक्र को सुचारू करती है जिससे भोजन का पाचन, अवशोषण तथा अनपचे पदार्थ का उत्सर्जन शरीर से सुचारू रूप से हो पाता है। भोजन के पश्चात् किसी प्रकार का शारीरिक श्रम करना मना है। दिन के भोजन के बाद वज्रासन में भी आराम किया जा सकता है। अगर पिंगला नहीं चल रही हो तो बाएं करवट लेटकर पिंगला नाड़ी को चलाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इस नाड़ी के चलते ही पाचन क्रिया सक्रिय हो उठती है। रात्रि में भोजन के बाद खुली हवा में 15-20 मिनट तक घुमना नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा भ्रामरी लाभदायक होता है। खाने के लगभग चार घंटे के पश्चात् ही रात्रि में सोने शय्या पर जाना चाहिए भोजनोपरांत तुरंत मैथुन कर्म वर्जित है। आहार कैसे लें इस संबंध में चरक संहिताकार (च.वि.) ने दस प्रकार के नियमों का निर्देश है :  आहार को उष्ण / गर्म अवस्था में ग्रहण करें। स्निग्ध आहार का ही सेवन करें। आहार उचित मात्रा में ही सेवन करें। अत्यधिक भोजन न करें। पूर्व भोजन के पचने के उपरान्त ही पुनः भोजन करें। विरूद्धाहार न लें।   उपयुक्त स्थान तथा उपयुक्त यन्त्र से ही आहार ग्रहण करें। बहुत तेजी से या अत्याधिक सुस्ती से भोजन न करें। शान्तिपूर्वक, एकाग्रचित्त, बिना वार्तालाप के आहार ग्रहण करें। स्वमूल्यांकन के साथ ही भोजन करें।

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