July 22, 2021
योग में अनुशासन और स्वतंत्रता-अनुशासनबद्ध स्वतंत्रता से समाज में व्यवस्था, शान्ति और समरसता पैदा होती है : महेश अग्रवाल
भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि आत्मज्ञान के लिए आंतरिक अनुशासन की आवश्यकता तो है ही, मानवता की रक्षा के लिए भी उसका महत्त्व है। हमारे परिवार, राष्ट्र, सरकार और मानवता की रक्षा अनुशासन को बनाये रखकर ही हो सकती है। महत्तर उपलब्धि, उच्चतर आत्म-प्रकाश और बाह्य-आभ्यंतर सुखों के लिए आंतरिक अनुशासन जरूरी है। योग इसी अनुशासन की बात करता है।
योग गुरु अग्रवाल ने बताया कि आंतरिक अनुशासन का संबंध सामाजिक, राजनैतिक और दूसरे प्रकार के बाह्य अनुशासन से नहीं है। कुछ ऐसे कठोर अनुशासन हैं जिनका पालन कठिन है। इसलिए आप उनसे भागते हैं। किन्तु आपको उनका पालन करना है। यदि नहीं करेंगे तो दण्ड के भागी होंगे। यौगिक अनुशासन में ऐसा नहीं है। यहाँ अनुशासन का विकास ऐसे होता है जैसे हम फूल का विकास बीज से फूल खिलने तक करते हैं। अनुशासन का विकास क्रमशः होता है। यह धीरे-धीरे पूर्णता को प्राप्त करता है। तब अनुशासन हमारे चिन्तन, हमारी भावना और हमारे जीवन का अंश बन जाता है। फिर तो वह मित्रों और अमित्रों, भले और बुरे सभी प्रकार के लोगों के साथ हमारे अन्तर्सम्बन्ध का अविभाज्य अंश बन जाता है।
इसी दृष्टि से हम लोग आंतरिक अनुशासन के आलोक में योग की चर्चा करते हैं। अधिकतर लोगों के लिए उनके जीवन में योग की एक सीमित भूमिका है। किसी स्कूल में जायें तो वहाँ बच्चे बड़े अनुशासित नजर आयेंगे। वहाँ बच्चे-बच्चियों को कैसे चलना चाहिए, कैसे पलकें झपकाना चाहिए, कैसे छींकना चाहिए, कैसे खाँसना चाहिए, कैसे खड़ा होना चाहिए,कैसे उठना-बैठना चाहिए – आदि सिखाया जाता है। अनुशासन के ये तरीके कवायती हैं। बच्चे उस प्रकार के अनुशासन को पसंद नहीं करते। वे मजबूरी में उनका पालन करते हैं, किन्तु भीतर से वे मुक्त होना चाहते हैं। हर आदमी स्वतंत्र चिन्तन, स्वतंत्र भावना, स्वतंत्र कार्य करना चाहता है। बिना अनुशासन की स्वतंत्रता उच्छृंखलता है। अनुशासनबद्ध स्वतंत्रता से समाज में व्यवस्था, शान्ति और समरसता पैदा होती है।
यौगिक पद्धति – योग में स्वतंत्रता और अनुशासन दोनों की चर्चा साथ-साथ की जाती है। अनुशासनबद्ध स्वतंत्रता और स्वातंत्र्यपूर्ण अनुशासन कभी एक साथ नहीं चल सकते हैं जब तक हम अपने शरीर, अपने मन, अपने संवेग, अपनी अन्तरात्मा और अपनी चेतना से संबंधित नियमों का समुचित प्रशिक्षण नहीं प्राप्त कर लेते। अतएव योग की कई शाखाएँ हैं जो हमारे अस्तित्व के इन पहलुओं पर काम करती हैं। योगों का वर्गीकरण मुख्य रूप से चार शाखाओं, जैसे, कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग में किया गया है। इन चार मुख्य धाराओं के अन्तर्गत हठयोग, क्रियायोग, लययोग, नादयोग आदि अन्य प्रकार के योग हैं। इन चार प्रकार के योगों का संबंध हमारे शरीर, मन, बुद्धि, संवेग, वासना, कर्म, अन्तर्सम्बन्ध, प्राकट्य और अभिव्यक्ति से है। यदि हमारी क्षमताओं और हमारे व्यक्तित्व के विविध तत्त्वों का सुव्यवस्थित ढंग से विकास नहीं हो रहा है तो हमारा व्यक्तित्व असंतुलित होगा। इस प्रकार संभव है कि बौद्धिक विकास बहुत अधिक हो जाय, पर भावात्मक पक्ष अवरुद्ध हो जाय। इसलिए सभी प्रकार के योगों के एकीकृत रूप को ग्रहण करना चाहिए। योग में पाँच यम है सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह – ये पाँच आत्मानुशासन हैं जिन्हे अपनी स्थिति और संभवता के अनुसार अभ्यास में उतारना है |