November 22, 2024

भारतीयता मनुष्‍य बनाने की है प्रक्रिया : प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल

वर्धा. भारतीयता मनुष्‍य बनाने की प्रक्रिया है। भारतीयता पश्‍चाताप जैसी अवधारणा को स्‍वीकार नहीं करती है। भारतीय परंपराएं प्रायश्चित की बात करती है। हमें भावी पीढ़ी को जीने लायक धरती देनी है तो वर्तमान पीढ़ी को इस विकास की अंधी दौड़ से अलग होकर आवश्‍यक प्रायश्चित करने पड़ेंगे। उक्‍त विचार कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल ने व्‍यक्‍त किये। वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रकाशन एकक द्वारा विश्‍वविद्यालय के रजत जयंती वर्ष में ‘पुस्तक-वार्ता श्रृंखला’ के अंतर्गत 18 अगस्त को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार’ से सम्मानित कृति ‘भारतीय ज्ञानपरंपरा और विचारक’ पर आयोजित पुस्तक-वार्ता कार्यक्रम के दौरान अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य देते हुए बोल रहे थे।

‘भारतीय ज्ञानपरंपरा और विचारक’ के लेखक प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल ने आगे कहा कि भारत की अनादि संस्‍कृति निरंतर बढ़ती रही है, श्रेष्‍ठता समकाल में कैसे आ सकती है, उसका आधान करती है। गांधी हिंद स्‍वराज में कहते हैं कि पश्चिम से जो पागलपन की बयार आ रही है उन सबको यथा : न्‍यायालय, रेल, शिक्षा आदि को चला जाना चाहिए। इसके अधीन होकर जो समाज चल रहा है, वह यांत्रिक समाज है। हमें यांत्रिकता की आंधी से बचकर मानवता के लिए सह-अस्तित्‍व के साथ जीना है। प्रो. शुक्‍ल ने कहा कि पिछले दो दशकों में पूरे विश्‍व की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संरचना में व्‍यापक बदलाव आया है। इस पूरे परिदृश्‍य में भारत एक बार फिर से विश्‍वगुरु बनेगा। यहां की जनता भारत को अपनी विशिष्‍ट पहचान बनाए हुए है। भारतीय मन और भारतीय दृष्टि मनुष्‍य को एक संपोष्‍य जीवन प्रणालीदे सकती है। भारतीय ज्ञानपरंपरा के सनातन प्रवाह की विविध धाराओं के रूप में समझने की कोशिश की गई है।

आधुनिकता को संदर्भित करते हुए प्रो. शुक्‍ल ने कहा कि डिजिटाइजेशन ने पढ़ने की संस्‍कृति को बाधित किया है। सूचना और ज्ञान में अंतर करना चाहिए। विवेकानंद कहते हैं जब अज्ञानी बोधहीन होते है तो पाप के भागी होते है। ज्ञानसम्‍मत कर्म कर रहे हैं तो सर्वथा श्रेष्‍ठ होता है। जानने का मतलब है- स्‍वयं से उत्तर तलाशते हुए समाज के साथ सातत्‍य रखना। भारत होना यानी प्रकाश में रत होना है, जब कुछ दिखता है तो प्रकाश में दिखता है। भारतीय ज्ञानपरंपरा इसका उपबृंहण है। आज के संदर्भों में जिन विचारकों ने ज्ञान परंपरा को प्रतिपादित करने में सर्वथा योगदान दिया है उन महान विचारकों को पुस्‍तक में शामिल किया गया है। यह पुस्‍तक चर्चा नए ज्ञान के वातायन खोले, पुस्‍तक की पठन संस्‍कृति के प्रति पाठकों की रुचि पैदा करेगी। यह पुस्‍तक समाज जीवन में काम करते हुए एक शिक्षक के रूप में विद्यार्थियों से भारत, भारतीयता, भारत की लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था, भारत की सांस्‍कृतिक परंपराएं, शिक्षा आदि विषयों पर हुए संवाद का प्रतिफल है।

विश्‍वविद्यालय के आवासीय लेखक प्रो. रामजी तिवारी ने प्रास्‍ताविकी देते हुए कहा कि इस पुस्‍तक को हजारी प्रसाद द्विवेदी सम्‍मान प्राप्‍त होना सम्‍मान व गौरव की बात है। कार्यक्रम में दर्शन एवं संस्‍कृति विभाग के अध्‍यक्ष डॉ. जयंत उपाध्‍याय, अतिथि अध्‍यापक डॉ. वागीश राज शुक्‍ल, दूर शिक्षा निदेशालय की एसोशिएट प्रोफेसर डॉ. प्रियंका मिश्र, स्‍त्री अध्‍ययन विभाग की अध्‍यक्ष डॉ. सुप्रिया पाठक, गांधी एवं शांति अध्‍ययन विभाग के एसोशिएट प्रोफेसर, डॉ. राकेश कुमार मिश्र,  शिक्षा विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. गोपाल कृष्‍ण ठाकुर, साहित्‍य विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. अवधेश कुमार, जनसंचार विभाग के अध्‍यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे, अनुवाद एवं निवर्चन विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. कृष्‍ण कुमार सिंह, वर्धा समाज कार्य संस्‍थान के निदेशक प्रो. मनोज कुमार, उज्‍बेकिस्‍तान के डॉ. सिरोजिद्दीन नरमातोव, प्रतिकुलपति प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्‍ल और प्रो. चंद्रकांत रागीट ने पुस्‍तक पर विचार व्‍यक्‍त किये।

कार्यक्रम का प्रारंभ कुलगीत से तथा समापन राष्‍ट्रगान से हुआ। प्रकाशन प्रभारी डॉ. रामानुज अस्‍थाना ने स्‍वागत वक्‍तव्‍य दिया तथा सह-प्रकाशन प्रभारी डॉ. मनोज कुमार राय ने आभार व्‍यक्‍त किया। कार्यक्रम के संयोजक डॉ. बीर पाल सिंह यादव ने संचालन किया।  इस अवसर पर विश्‍वविद्यालय के अधिष्‍ठातागण, विभागाध्‍यक्ष, अध्‍यापक, शोधार्थी एवं विद्यार्थी बड़ी संख्‍या में उपस्थित थे तथा विश्‍वविद्यालय के क्षेत्रीय केंद्र प्रयागराज एवं कोलकाता के अध्‍यापक एवं विद्यार्थी ऑनलाइन माध्‍यम से जुड़े थे।

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