जनगणना और आदिवासी पहचान का सवाल

 

(आलेख : बृंदा करात, अनुवाद : संजय पराते)

जनगणना 2027 के लिए गजट अधिसूचना में जो इतनी ज्यादा देर की गई है, उसकी हो रही आलोचना पूरी तरह से सही है, क्योंकि वादा किया गया था कि जनगणना के साथ ही जाति जनगणना की जाएगी। लेकिन गजट अधिसूचना में इस मामले में स्पष्टता का अभाव है। आदिवासी/एसटी (ये दोनों शब्द एक-दूसरे की जगह उपयोग में लाए जाते हैं) समुदायों की लंबे समय से चली आ रही इस मांग पर भी शायद ही कोई चर्चा हो कि जनगणना के हिस्से के रूप में आस्था की प्रणालियों सहित उनकी विशिष्ट पहचान को मान्यता दी जाए।

जनगणना में व्यक्ति-विशेष की धार्मिक मान्यताओं के पंजीकरण के माध्यम से देश की धार्मिक जनसांख्यिकी का पता लगाना शामिल है। उल्लिखित धर्म हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म हैं। अन्य मान्यताओं वाले लोगों के लिए “अन्य धार्मिक विश्वास” (ओआरपी) का एक और सामान्य कॉलम है, लेकिन आदिवासी/एसटी समुदायों की मान्यताओं के लिए कोई कॉलम नहीं है। कई मामलों में यह चूक असंवैधानिक है।

संविधान में आदिवासी/एसटी विश्वासों, रीति-रिवाजों और परंपराओं की सुरक्षा के लिए विशिष्ट प्रावधान हैं, जैसे कि पांचवीं और छठी अनुसूची में परिलक्षित होते हैं। इसके अलावा अनुच्छेद 371-ए और 371-बी में क्रमशः नागालैंड और मिजोरम में प्रथागत कानूनों और प्रथाओं के लिए विशिष्ट सुरक्षा है। संविधान अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो किसी विश्वास को मानने, उसका निर्वहन करने और प्रचार करने और धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने के अधिकार को सुनिश्चित करता है। आदिवासियों/एसटी के लिए, इन अधिकारों को जनगणना सहित हर सामान्य कानूनी और नीतिगत ढांचे में प्रकृति पूजा और पैतृक परंपराओं पर केंद्रित अलग-अलग आस्था आधारित विश्वासों और प्रथाओं को मान्यता देने में रूपांतरित करना चाहिए। जनगणना को छह प्रमुख धर्मों या अस्पष्ट ओआरपी श्रेणी तक सीमित रखना आदिवासियों को मुख्य धारा के धर्मों के साथ गलत पहचान स्थापित करने या ओआरपी जैसी एक व्यापक और अस्पष्ट श्रेणी में धकेलने के लिए मजबूर करना है और यह संविधान के अनुच्छेद-25 की भावना का उल्लंघन करता है।

यह गलत पहचान 2011 की जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों में भी दिखाई देती है। 2011 की जनगणना में आदिवासी/एसटी की आबादी 10.43 करोड़ या तब की कुल 120 करोड़ की आबादी का 8.6 प्रतिशत बताई गई थी। इन 10.43 करोड़ आदिवासियों/एसटी ने अपनी धार्मिक पहचान कैसे दर्ज की? अगर जनगणना की तालिका सी-01 में दिए गए “अन्य धार्मिक विश्वास (ओआरपी)” कॉलम को देखें, तो ओआरपी के तहत केवल 0.66 प्रतिशत आबादी या सिर्फ़ 79 लाख लोगों ने ही पंजीकरण कराया है, जिसका मतलब है कि एसटी समुदायों के बड़े हिस्से ने अपनी धार्मिक या आध्यात्मिक पहचान दर्ज नहीं कराई है या उन्हें दूसरे धर्मों के साथ गलत पहचान दर्ज करानी पड़ी। यह स्पष्ट रूप से अनुचित और अन्यायपूर्ण है।

एक और पहलू भी है। आदिवासी समुदायों के अधिकांश लोग दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और उन्हें ओआरपी विकल्प के अर्थ के बारे में बहुत कम जानकारी है। यह जागरूकता केवल उन जगहों पर है, जहाँ आदिवासी संगठनों ने आदिवासी पहचान को अपनी पहचान के साधन के रूप में ओआरपी के तहत अपने विशिष्ट धर्म के पंजीकरण के बारे में सक्रिय रूप से जानकारी प्रदान की है, जहाँ ओआरपी की संख्या में वृद्धि हुई है। यह जनगणना तालिकाओं के परिशिष्ट में दिए गए ओआरपी के आगे के विश्लेषण में पाया गया है। झारखंड में जहाँ सरना आधारित लामबंदी हुई है, ओआरपी के तहत सरना के नाम पर विशेष रूप से पंजीकरण किसी भी राज्य की तुलना में सबसे अधिक था, जहाँ 49 लाख व्यक्तियों ने ओआरपी कॉलम में सरना के रूप में पंजीकरण कराया था। मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में, जहाँ गोंड समुदाय का लामबंदी महत्वपूर्ण है, वहाँ 10 लाख से अधिक व्यक्तियों ने ओआरपी कॉलम में गोंड धर्म के रूप में पंजीकरण कराया है। दूसरे शब्दों में, जहां सामान्य जानकारी “अन्य धार्मिक विश्वास” कॉलम की अस्पष्टता को तोड़ती है, आदिवासी समुदाय अपने स्वयं के धर्मों को पंजीकृत करना पसंद करते हैं।

यह मुद्दा इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि आदिवासी अधिकारों को प्रभावित करने वाले राजनीतिक संदर्भ बदल गए हैं। आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों और ईसाई धर्मांतरित लोगों को आरएसएस से जुड़े संगठनों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है और यह तो जगजाहिर है ही कि बहु-प्रचारित घर वापसी कार्यक्रम आदि के जरिए पिछले कुछ सालों में इन पर हमले भी बढ़े हैं। मोदी सरकार के शासन के एक दशक में आरएसएस संगठनों के काम का विस्तार आरएसएस के इस आख्यान को मजबूत करने के लिए हुआ है कि “वनवासी” ऐतिहासिक रूप से वृहद हिंदू परिवार का हिस्सा हैं। आदिवासी समुदायों के हिंदूकरण के ये नए तरीके हैं, जिसमें राज्य की शक्ति का इस्तेमाल करके पारंपरिक आदिवासी प्रमुखों के हिस्सों को विभिन्न तरीकों से अपने साथ शामिल किया जाता है और उन पर दबाव भी बनाया जाता है। वे आदिवासी रीति-रिवाजों को हिंदू प्रथाओं के साथ जोड़ने, पारंपरिक मंत्रों के बीच हिंदू देवताओं का जश्न मनाने वाले नारे लगाने, आदिवासी इलाकों में मंदिरों का निर्माण और हिंदू त्योहारों को मनाने, हिंदू धार्मिक नारों के साथ भगवा झंडे फहराने, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पवित्र आदिवासी क्षेत्रों से मिट्टी लाने आदि की रणनीति के साधन बन गए हैं। प्रतिष्ठित सरकारी ईएमआर स्कूलों में पढ़ने वाले आदिवासी बच्चों को उनकी अपनी परंपराओं से ज़्यादा हिंदू रीति-रिवाज़, भजन और त्यौहारों के बारे में पढ़ाया जाता है। गरीब आदिवासी इलाकों में चल रहे आरएसएस संचालित स्कूलों के नेटवर्क के विस्तार के लिए फंड की कमी नहीं है और प्रसिद्ध कॉरपोरेटों के सीएसआर फंड आसानी से उपलब्ध हैं। मुद्दा यह है कि यह आरएसएस के मुख्य एजेंडे के हिस्से के रूप में आदिवासियों के बीच एक व्यापक हिंदुत्व पहचान के निर्माण की दिशा में एक सुविचारित योजना है।

इससे आरएसएस का घोर पाखंड और आदिवासी पहचान और संस्कृति के प्रति उसकी वास्तविक अवमानना भी उजागर होती है। आरएसएस की मांग है कि जो आदिवासी ईसाई धर्म अपनाते हैं, उनसे अनुसूचित जनजाति के रूप में उनकी मान्यता छीन ली जानी चाहिए, क्योंकि उनके अनुसार आदिवासी धर्म और मान्यताओं के प्रति निष्ठा ही यह निर्धारित करती है कि व्यक्ति आदिवासी है या नहीं। फिर भी जो आदिवासी हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करते हैं और हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं या खुद को हिंदू के रूप में पहचानते हैं, वे अभी भी एसटी के रूप में मान्यता के पात्र हैं। वास्तव में संवैधानिक और कानूनी स्थिति यह है कि किसी भी समुदाय या समूह को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देना धार्मिक संबद्धता से नहीं, बल्कि कई अन्य कारकों से जुड़ा है।

वर्तमान शासन की ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति’ परियोजना का संपूर्ण केंद्रीकरण और एकरूपता, आदिवासी समुदायों को गहराई से और नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। आदिवासी/एसटी के रूप में पहचाने जाने वाले 700 समुदायों में समानता और विविधता दोनों हैं। वास्तव में, भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व एसटी समुदायों द्वारा किया जाता है, जो सांस्कृतिक, भाषाई और आध्यात्मिक विविधता के समृद्ध विरासत का प्रतीक हैं। आदिवासी समुदायों द्वारा हिंदुत्व में उन्हें आत्मसात करने के नए रूपों और तरीकों के खिलाफ़ कड़ा प्रतिरोध किया जा रहा है। जनगणना में आदिवासी आस्था को मान्यता देने की मांग प्रतिरोध का एक ऐसा ही रूप है।

नवंबर 2020 में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झारखंड सरकार ने 2021 की जनगणना में सरना को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए राज्य विधानसभा का एक विशेष सत्र बुलाया था। प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित किया गया था। यहां तक कि भाजपा ने भी इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं की। इसे मंजूरी और समावेश के लिए केंद्र के पास भेजा गया था। कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। 2021 में होने वाली जनगणना अब 2027 में की जाएगी, लेकिन यह प्रस्ताव आज भी उतना ही प्रासंगिक है। बहरहाल, यह मुद्दा केवल एक राज्य या एक विशिष्ट आदिवासी विश्वास तक सीमित नहीं है। चूंकि सभी राज्यों और सभी आदिवासी समुदायों के बीच विश्वासों की विविधता है, इसलिए जनगणना में आदिवासी/एसटी धर्म शीर्षक से एक अलग कॉलम जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें आदिवासी अपने विशेष विश्वास को दर्ज कर सकें। इस तरह आदिवासी धर्म उल्लिखित अन्य छह धर्मों के बराबर हो जाएंगे। इस मांग को सभी राजनीतिक दलों के समर्थन की जरूरत है और उन्हें लोकतंत्र को मजबूत करने और न्याय के लिए आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को मजबूत करने के लिए इस तरह के समावेश के लिए सरकार पर दबाव बनाना चाहिए।

(‘हिन्दू’ से साभार। लेखिका माकपा पोलिट ब्यूरो की पूर्व सदस्य और भारत में महिला आंदोलन की जुझारू नेता हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)

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