VIDEO : दुगली कांड पर माकपा की जांच रिपोर्ट जारी : विस्थापन के लिए आगजनी व सामाजिक बहिष्कार और न्याय के लिए अंतहीन इंतज़ार की कहानी

रायपुर.धमतरी जिले के नगरी विकासखंड के दुगली ग्राम पंचायत के आश्रित ग्राम बिरनपुर में 13 अक्टूबर 2020 को की गई आगजनी में 20 नहीं, 35 घर जलाए गए हैं. इस हमले का नेतृत्व कांग्रेस नेता शंकर नेताम कर रहा था, जो दुगली वन प्रबंधन समिति का अध्यक्ष भी है और जिसने मीडिया को दिए अपने बयान में स्वीकार किया है कि उसने इन घरों को हटाया है. पिछले पांच वर्षों में तीन बार इन आदिवासियों पर हमला करके उनके घरों को जलाया गया है, फसल को नष्ट किया गया है और पीड़ितों का सामाजिक बहिष्कार जारी है. इन हमलों में वन विभाग की भी स्पष्ट संलिप्तता सामने आई है, जिसने हमलावरों के साथ मिलकर पीड़ितों पर ही झूठे मुक़दमे दर्ज किए है और उन्हें जेलों में भेजा गया है. पीड़ित पुरूषों को उच्च न्यायालय से ही जमानत मिल पाई है. इन पांच वर्षों में पीड़ितों को 2 करोड़ रुपयों का नुकसान पहुंचा है. पीड़ितों द्वारा बार-बार स्थानीय थाने, एसपी और कलेक्टर को शिकायत किए जाने के बावजूद हमलावरों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई है. पीड़ितों के वनाधिकार के आवेदन बिना कोई कारण बताये चार बार निरस्त किए गए हैं. इस जघन्य आगजनी कांड के 15 दिनों बाद और राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में आने के बाद भी प्रशासन का कोई अधिकारी पीड़ितों की सुध लेने उनके गांव नहीं पहुंचा है.
ये वे तथ्य हैं, जो दुगली में हुए आगजनी कांड की जांच के लिए गठित माकपा जांच दल को मिले हैं. इस दल में पार्टी के धमतरी जिला सचिव समीर कुरैशी, जिला समिति सदस्य मनीराम देवांगन, महेश शांडिल्य और स्थानीय नेता तेजराम चक्रधारी शामिल थे. उन्होंने 26-27 अक्टूबर 2020 को क्षेत्र का दौरा किया, पीड़ित परिवारों और अन्य ग्रामीणों से बातचीत की, घटनास्थल का दौरा किया और आवश्यक तथ्य, दस्तावेज और जानकारियां एकत्रित की. रिपोर्ट का शीर्षक है : “विस्थापन के लिए आगजनी व सामाजिक बहिष्कार और न्याय के लिए अंतहीन इंतज़ार की कहानी”.
https://youtu.be/FR-lZ5_qXus
3000 शब्दों से ज्यादा की 5 पेजी जांच रिपोर्ट को मीडिया के लिए जारी करते हुए माकपा राज्य सचिव संजय पराते ने मांग की है कि हमलावरों को गैर-जमानती धाराओं में गिरफ्तार किया जाए, सभी पीड़ित परिवारों को उनको हुए आर्थिक नुकसान और सामाजिक बहिष्कार के कारण उनकी प्रतिष्ठा को पहुंची ठेस की भरपाई के लिए दस-दस लाख रूपये मुआवजा दिया जाएं और उन पर लादे गए फर्जी मुक़दमे वापस लिए जाये, सभी पीड़ित आदिवासी परिवारों को वनाधिकार पट्टे दिए जाएं, हमलावरों को बचाने वाले पुलिसकर्मियों को निलंबित किया जाए, इन पीड़ित परिवारों को एक साल तक मनरेगा में 300 दिन काम और ग्राम पंचायत के जरिये मुफ्त राशन देना सुनिश्चित किया जाए तथा वन विभाग की सूची में शामिल बिरनपुर गांव के सभी लोगों को आवासीय पट्टे दिए जाएं.
इस रिपोर्ट के साथ ही माकपा ने घटना स्थल की तस्वीरों, पीड़ितों के बयानों के वीडियो तथा कुछ दस्तावेजों को भी मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक किया है, जिससे वन भूमि पर पीड़ितों का दावा पुख्ता होता है और उन्हें भगाने के लिए उनके घरों में आगजनी करना प्रमाणित होता है. इस जांच रिपोर्ट को आज ही माकपा जिला सचिव समीर कुरैशी के नेतृत्व में धमतरी कलेक्टर और एसपी को भी सौंपा गया है. प्रतिनिधिमंडल में जांच दल के सदस्यों के अलावा पीड़ित परिवारों से राकेश परते, बीरबल सोनवानी, सुखवती परते और सुरेखा कोर्राम शामिल थीं. इस रिपोर्ट को मुख्यमंत्री को भी भेजकर पीड़ितों को न्याय देने और हमलावर अपराधियों को सजा देने की मांग माकपा ने की है.
माकपा ने अपनी जांच रिपोर्ट में पाया है कि पिछले पांच वर्षों में पीड़ितों पर तीन बार हमला किया गया है और तीनों बार इसका नेतृत्व कांग्रेस के स्थानीय नेता शंकर नेताम ने किया है. यही कारण है कि इसके खिलाफ आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है. 13 अक्टूबर की आगजनी के बाद भी पीड़ितों की एफआईआर दर्ज करने के बजाये उन्हें न्यायालय जाने के लिए कहा गया. पार्टी ने पीड़ितों के साथ बातचीत के बाद गणना की है कि इन हमलों के कारण हर पीड़ित परिवार को औसतन 6 लाख रुपयों का नुकसान हुआ है. सामाजिक बहिष्कार के कारण उनकी प्रतिष्ठा को जो ठेस पहुंची है, वह अलग है!
माकपा ने आरोप लगाया है कि आगजनी जैसी जघन्य वारदात के 15 दिनों बाद भी हमलावर अपराधियों को गिरफ्तार नहीं किया गया है. इससे साबित होता है कि प्रशासन की अपराधियों के साथ खुली मिलीभगत है और वह उन्हें बचाने का प्रयास कर रही है. यही कारण है कि कलेक्टर द्वारा इस घटना की जांच के निर्देश दिए जाने के बावजूद नगरी एसडीएम 20 किमी. दूर दुगली तक नहीं पहुंच पाए हैं. जांच रिपोर्ट जिलाधीश को सौंपने के बाद धमतरी में माकपा नेता समीर कुरैशी ने कहा है कि पीड़ितों ने न्याय मिलने के आश्वासन पर अपना धरना समाप्त किया है, लेकिन जरूरत पड़ने पर पीड़ित आदिवासी परिवार राजधानी रायपुर तक पदयात्रा करके मुख्यमंत्री के दरवाजे तक पहुंचकर न्याय की गुहार लगाने का हौसला रखते हैं और अब इस संघर्ष की अगुआई माकपा करेगी.
ऐतिहासिक क्षेत्र दुगली
दुगली गांव छत्तीसगढ़ के धमतरी जिला मुख्यालय से 46 किमी. दूर और नगरी विकासखंड मुख्यालय से 20 किमी. दूर पड़ता है. यह धमतरी जिले के नगरी विकासखंड का ऐतिहासिक ग्राम है. पहली बार यह गांव तब चर्चा में आया, जब 14 जुलाई 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी सपरिवार यहां आये थे. उनके साथ तब श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी थे. उन्होंने इस गांव का आतिथ्य ग्रहण किया था, आदिवासियों के भोजन – कडू कांदा, मड़िया पेज, कुल्थी दाल और चरोटा भाजी – को ग्रहण किया था और आदिवासी संस्कृति से प्रभावित होकर इस गांव को गोद में लेने की घोषणा की थी. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी दिवंगत राजीव की प्रतिमा के अनावरण के लिए पिछले साल 20 अगस्त 2019 को फिर दुगली पहुंचे थे और इसे फिर से अपने गोद में लिया था. 150 करोड़ रुपयों के विकास कार्यों की घोषणा के साथ ही सभी आदिवासियों को वन भूमि का पट्टा देने की भी घोषणा की थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि राजीव से लेकर भूपेश तक आम आदिवासियों की किस्मत न बदलनी थी, न बदली. इस क्षेत्र के गरीब आदिवासियों के लिए न्याय आज भी कोसों दूर है.
नगरी क्षेत्र के आदिवासी ऐतिहासिक रूप से भूमि के अधिकार से आज भी वंचित है. इस क्षेत्र में समाजवादियों का परंपरागत प्रभाव रहा है और पिछले 40 सालों में पचीसों बार वे अपने वनाधिकार के लिए नगरी से रायपुर तक पद यात्रा कर चुके हैं. आदिवासियों के साथ हुए ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को दूर करने के लिए जो वनाधिकार कानून बना है, वह आज राजनैतिक रूप से प्रभुत्वशाली लोगों के हाथों का खिलौना बन चुका है. फलतः इस क्षेत्र के आदिवासियों को वन भूमि से विस्थापित करने के लिए उन पर अत्याचार-उत्पीड़न अलग-अलग रंग-रूपों में जारी है, लेकिन इसके साथ ही अपने जीवन-अस्तित्व के लिए आदिवासियों की लड़ाई भी जारी है, कहीं मौन प्रतिरोध के साथ, तो कहीं मुखर संघर्ष के रूप में.
पीड़ित परिवारों की कहानी
दुगली ग्राम पंचायत का आश्रित ग्राम है बिरनपारा. नाम से ही पता चलता है कि यह गांव कभी वीरान रहा होगा. ग्रामीणों से मिली जानकारी के अनुसार यह गांव दुगली वन परिक्षेत्र के कक्ष क्रमांक-266 धोबाकछार में लगभग 350 एकड़ क्षेत्र में बसा है और इस समय लगभग 100 परिवार यहां निवास करते हैं. इनमें से 6  परिवारों को 2 डिसमिल से 75 डिसमिल तक का वन अधिकार पत्र भी वन विभाग ने दिया है (एक पट्टा संलग्न). ग्रामीणों ने वन विभाग की सूची हमें दिखाई, जिसमें 35 परिवारों को पट्टा दिए जाने का उल्लेख है, लेकिन केवल 6 परिवारों को ही वास्तव में अधिकार पत्र दिए गए हैं, (यहां भी धोखाधड़ी!). बाकी परिवारों के पास कोई कागज नहीं है. लेकिन इससे पता चलता है कि मूलतः यह वन ग्राम है. पीड़ित आदिवासी परिवार यहां 1970 से निवास करते हैं. वर्ष 1993-94 में इन पीड़ित परिवारों के पुरखों ने इस वन क्षेत्र के कक्ष क्रमांक 266 में 2 से 4 एकड़ वन भूमि पर कब्ज़ा किया और खेती करना शुरू किया. खेती की रखवाली के लिए उन्होंने यहां अपनी झोपड़ियां भी बनाई. कुल मिलाकर 35 परिवारों का लगभग 100 से 120 एकड़ वन भूमि पर इनका कब्ज़ा है. ये सभी भूमिहीन थे और आज भी ये परिवार भूमिहीन हैं. उनके जीवन-यापन का एकमात्र जरिया यही वन भूमि है.
वन भूमि होने के कारण वन विभाग इन्हें अपने उत्पीड़न का शिकार तो बनाता ही है, राजस्व विभाग भी इन्हें डरा-धमकाकर इनसे अवैध वसूली में पीछे नहीं रहता. वनाधिकार कानून बनने के बाद इन पीड़ितों को आस बंधी थी कि इस सरकारी अत्याचार से उन्हें मुक्ति मिलेगी. लेकिन यह आस अब निराशा में बदल गई है, क्योंकि राजनैतिक रूप से प्रभुत्वशाली लोगों की काली नजरें अब उनकी जमीन पर टिक गई है, जो अब उन्हें वहां से भगाकर इस जमीन और आसपास की वन भूमि पर कब्ज़ा ज़माना चाहते हैं. इन भूमि-चोरों के आदिवासी होने के कारण और सत्ता और प्रशासन का भी उन्हें मिल रहे संरक्षण के कारण इस जमीन को हथियाना उनके लिए आसान है. सड़क मार्ग से लगी होने के कारण अब यह भूमि कीमती हो गई है.
दिखावे के लिए ही सही, भाजपा राज में जब वनाधिकारों की प्रक्रिया वर्ष 2015 में शुरू हुई, इन पात्र आदिवासियों के लिए मुसीबतों का दौर शुरू हो गया. 10 अगस्त 2015 को ग्राम पंचायत दुगली के तत्कालीन सरपंच रामकंवर मंडावी ने इन पीड़ितों के यहां बसने और खेती करने के लिए उन्हें वनाधिकार देने के बारे में इस आधार पर अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया कि ये पीड़ित परिवार 1970 से यहां रह रहे हैं, *(प्रमाण पत्र संलग्न). वनाधिकार दावों के लिए यह एक महत्वपूर्ण सबूत है.* इसके बावजूद 15 अगस्त 2015 को दुगली और दिनकरपुर के वन प्रबंधन समिति (दिनकरपुर 5 किमी. दूर है दुगली से) के सदस्यों ने इन्हें यहां से भगाने के लिए जघन्य मारपीट की और इनकी झोपड़ियों को तोड़ डाला. इस हमले का नेतृत्व शंकर नेताम ने किया था, जो कांग्रेस पार्टी का उस इलाके में नेता है. इसके साथ ही, इन हमलावरों का साथ देते हुए वन विभाग ने इन उत्पीड़ितों पर ही लगभग 50 लाख रूपये मूल्य के 380 वृक्षों की अवैध कटाई का फर्जी मामला वन अधिनियम 1927, वन संरक्षण अधिनियम 1980, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 और लोक संपत्ति हानि विरोपण अधिनियम 1984 के तहत वन अपराध क्र.7947/06 बनाकर 35 महिला और पुरूषों को गिरफ्तार कर लिया. इनमें से 12 पुरूष पीड़ितों को बिलासपुर हाई कोर्ट से ही जमानत मिल पाई. हाई कोर्ट ने यह पाया कि पूरा मामला एक ट्राली जलाऊ लकड़ी की जब्ती का ही है. स्थानीय व्यवहार न्यायालय में यह केस अभी भी चल रहा है और आदिवासी कोर्ट का चक्कर लगाते हुए बाबुओं और वकीलों के दाना-पानी का इंतजाम कर रहे हैं.
वन भूमि न छोड़ने की सजा देते हुए इन आततायियों ने वर्ष 2015 से इन पीड़ित 20 आदिवासी परिवारों के सामाजिक बहिष्कार का एलान कर दिया है और इसका उल्लंघन होने पर 5000 रूपये जुर्माना लगाने की मौखिक घोषणा कर दी है. तब से आज तक पीड़ितों का सामाजिक बहिष्कार जारी है. दुगली, बिरनपुर और दिनकरपुर का कोई भी आदमी इनसे बात नहीं करता, घरेलू-सामाजिक संबंध नहीं रखता और दुकानदार सामान नहीं देते. इस बात की उन्होंने पुलिस को भी शिकायत की, लेकिन उसने आज तक कोई कार्यवाही नहीं की.
इससे हमलावरों का हौसला और बढ़ा. उन्होंने दूसरी बार फिर दुगली वन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष शंकर लाल नेताम और वन विभाग के कर्मचारियों की अगुआई में 20 मार्च 2017 को उन पर हमला करके उनकी झोपड़ियों और फसल को नष्ट कर दिया. इस बार फिर पीड़ित आदिवासियों ने इसकी शिकायत स्थानीय थाने के साथ ही एसपी व कलेक्टर को की, लेकिन कार्यवाही के नाम पर हमलावरों पर आईपीसी की धारा 107, 116 का मामला बनाकर रफा-दफा कर दिया गया. इस बीच पीड़ित परिवारों ने चार बार – वर्ष 2013, 2015, 2017 और 2019 में – अपने कब्जे की वन भूमि पर पट्टों के लिए आवेदन दिए, कुछ लोगों को इन आवेदनों की व्यक्तिगत रूप से और कुछ को सामूहिक रूप से पावती भी दी गई, लेकिन हर बार बिना कोई कारण बताये मौखिक रूप से उन्हें उनके आवेदन निरस्त होने की सूचना दे दी गई.
25 सितम्बर 2020 को दुगली और दिनकरपुर वन प्रबंधन समिति के लोगों ने आकर उन्हें गांव से भागने के लिए कहा और इससे इंकार करने पर उन लोगों के साथ मारपीट की गई और घर जलाने की धमकी दी गई. इसकी लिखित शिकायत उन्होंने दुगली थाने जाकर की, लेकिन पुलिस ने पीड़ितों से कहा कि वह हस्तक्षेप नहीं कर सकती और सीआरपीसी की धारा 155 के तहत पीड़ित लोग कोर्ट में चले जाए. यह साफ़ तौर से हमलावरों के साथ पुलिस की मिलीभगत को दिखाता है.
पुलिस के इस रवैये से उत्साहित वन प्रबंधन समिति के लोगों द्वारा फिर तीसरी बार 13 अक्टूबर 2020 को दोपहर 12 से 1 बजे के बीच हमला किया गया. इस बार भी हमले की अगुआई दुगली वन प्रबंधन समिति का अध्यक्ष और कांग्रेस नेता शंकर नेताम ही कर रहा था. इस हमले के लिए उसने कई महिलाओं और दिनकरपुर वन प्रबंधन समिति के लोगों को भी संगठित किया था. पीड़ित महिलाओं ने बताया कि हमले के समय पुरूष घर में नहीं थे. भीड़ ने आते ही घरों को तोड़ना शुरू कर दिया और महिलाओं के लिए अपने बच्चों को संभालना ही प्राथमिक काम हो गया था. उनकी आंखों के सामने ही झोपड़ियां उजाड़ दी गई, घरों का सामान फेंक दिया गया और टूटे घरों में आग लगा दी गई, खड़ी फसल को नष्ट कर दिया गया. 25 सितम्बर की उनकी शिकायत पर यदि पुलिस कार्यवाही करती, तो उन्हें अपनी यह बर्बादी नहीं देखनी पड़ती. लेकिन इस घृणित आगजनी के बाद भी पीड़ितों की पुलिस थाने में सादे कागज़ पर ही शिकायत ले ली गई है और हमलावरों पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है.
जिनकी झोपड़ियां और फसल नष्ट हुई हैं, उन पीड़ित परिवारों के मुखियाओं के नाम इस प्रकार हैं :
1. राकेश परते (पूर्व उप-सरपंच), 2. गीता बाई कोर्राम (वर्तमान पंच), 3. बीरबल सोनवानी, 4. शीत कुमार निषाद
5. माला बाई गोंड, 6. नरेन्द्र कुमार नेताम, 7. प्रतापसिंह मंडावी, 8. रमूलाबाई चक्रधारी, 9. प्रेमाबाई, 10. कीर्तन मरकाम, 11. सदाराम गोंड, 12. पहेला बाई गोंड, 13. चैन सिंह गाड़ा, 14. प्रकाश गोंड, 15. भिखारीराम गाड़ा,
16. भीखम सिंह गाड़ा, 17. राम कुमार केंवट, 18. बंसीलाल गाड़ा, 19. दिनेश राम राउत, 20. प्रकाश गोंड. 21. पुनीत राम राउत, 22. तामेश्वर, 23. अजीत, 24. किसन, 25. चंदन राम गोंड, 26. वर्षा बाई, 27. सुखबती परते, 28. माता बाई,
29. सुनीता बाई और 30. राधिका सोनवानी, 31. इंदिरा बाई, 32. ईश्वर, 33. संतोषी बाई, 34. कुमारी बाई, 35. चमेली बाई.
*वन प्रबंधन समिति दुगली के अध्यक्ष शंकर नेताम ने बयान दिया है कि इन अवैध कब्जाधारियों को वन भूमि से हटाया गया है. (नई दुनिया, 25 अक्टूबर, धमतरी संस्करण). प्रकारांतर से झोपड़ियां जलाने की जिम्मेदारी उसने स्वीकार की है*. लेकिन वनाधिकार कानून किसी भी संस्था को वन भूमि से किसी की भी बेदखली की इजाजत नहीं देता. इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही दिए गए बेदखली के फैसले के अमल पर भी रोक लगा दी है. फिर सवाल यह भी है कि ग्राम सभा के प्रस्ताव को लागू करने का अधिकार शंकर नेताम को किसने दिया?
नुकसानी का आंकलन
हमने घटना स्थल का भी दौरा किया. यहां कुछ पीड़ित महिलाएं अपने उजड़े और जले घरों से रोजमर्रा की बची हुई चीजों को सहेजने की कोशिश कर रही थीं. हमलावरों ने उस राष्ट्रीय ध्वज-स्तंभ को भी उखाड़ फेंका हैं, जिस पर हमारे देश के संविधान और कानून में आस्था जताते हुए हर साल 26 जनवरी और 15 अगस्त को ये आदिवासी राष्ट्रीय ध्वज फहराकर “जन गण मन” गाते है।
माकपा जांच दल ने पीड़ित आदिवासियों की संपत्ति को हुए नुकसान का आंकलन करने की कोशिश की है. पीड़ितों के अनुसार तीन बार उनकी झोपड़ी और रोजमर्रा का जो सामान नष्ट हुआ है, हर बार प्रत्येक का नुकसान लगभग 25000 रुपयों का है. *इस प्रकार 26.25 लाख रुपयों सामूहिक संपत्ति नष्ट हुई है*. इसी प्रकार उन्होंने पिछले वर्ष अपनी काबिज जमीन में लगभग 1500 क्विंटल धान पैदा किया था. इस वर्ष भी फसल की स्थिति अच्छी थी. 2500 रूपये प्रति क्विंटल सरकारी मूल्य के हिसाब से उनकी *37.50 लाख रुपयों की फसल नष्ट की गई है*. इस फसल पर सी-2 लागत 2000 रूपये प्रति क्विंटल की ही गणना की जाए, तो खेती में *उनके लगे 30 लाख रूपये भी पानी में चले गए*. इसके पहले भी वर्ष 2015 और फिर 2017 में इसी प्रकार फसल उजाड़ी गई. इन *दोनों वर्षों की भी कुल क्षति 90 लाख रुपयों की तो होगी ही*. वर्ष 2015 से अब तक *कोर्ट-कचहरी में प्रत्येक परिवार को औसतन 40-50 हजार रुपयों का नुकसान हुआ है*. इस प्रकार सभी 35 पीड़ित परिवारों का इन *पांच वर्षों में 200 लाख (2.00 करोड़) रुपयों का सामूहिक नुकसान* हुआ है और प्रत्येक पीड़ित आदिवासी परिवार का 6 लाख रुपयों का औसत नुकसान माना जा सकता है.
पीड़ितों की स्थिति
सभी पीड़ित भूमिहीन हैं और गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करते हैं. कुछ को छोड़ इनमें से सभी आदिवासी हैं और वनाधिकार कानून के तहत अपनी कब्जे की वन भूमि का पट्टा प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं. उनके पास इस वन भूमि पर खेती-किसानी के सिवा आजीविका का और कोई स्थायी जरिया नहीं है. पीड़ितों ने बताया कि उनके सामाजिक बहिष्कार के कारण उनकी सामाजिक हैसियत और आर्थिक स्थिति में और ज्यादा गिरावट आई है. मनरेगा में भी उन्हें ठीक तरह से काम नहीं दिया जाता. पिछले वर्ष केवल 8-10 दिनों का ही उन्हें काम दिया गया और इस वर्ष एक भी दिन का काम उन्हें नहीं दिया गया, जबकि बाकी ग्रामीणों को साल में औसतन 40-50 दिनों का काम तो मिल ही जाता है. लॉक डाउन के दौरान भी इन पीड़ित परिवारों को मनरेगा में काम नहीं दिया गया है, जबकि बाकी गांव वालों को काम दिया गया. आगजनी के बाद इन पीड़ितों को अभी तक न तो प्रशासन से और न ही पंचायत से कोई मदद मिली है और वे भुखमरी की कगार पर खड़े हैं.
माकपा जांच दल की मांग
पीड़ितों की बातें सुनने और उनके पास के दस्तावेजों को देखने के बाद माकपा जांच दल राज्य सरकार और प्रशासन से निम्न मांग करता है :
1. हमलावरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया जाए, लगातार किए गए हमलों और पीड़ितों के सामाजिक बहिष्कार के मद्देनजर उन पर गैर-जमानती धारायें लगाकर कर उन्हें गिरफ्तार किया जाएं और इस हमले की अगुआई करने वाले शंकर नेताम को वन प्रबंधन समिति से हटाया जाएं. दोनों समितियों को भंग कर नए सदस्यों के साथ पुनर्गठित की जाए.
2. सभी पीड़ित परिवारों को उनको हुए आर्थिक नुकसान और सामाजिक बहिष्कार के कारण उनकी प्रतिष्ठा को पहुंची ठेस की भरपाई के लिए दस-दस लाख रूपये मुआवजा दिया जाएं और उन पर लादे गए फर्जी मुक़दमे वापस लिए जाये.
3. सभी पीड़ित आदिवासी परिवारों को वनाधिकार पट्टे दिए जाएं और गैर-आदिवासी परिवारों को अन्यत्र कृषि भूमि देकर पुनर्वास किया जाए.
4. हमलावरों को बचाने वाले पुलिसकर्मियों को निलंबित किया जाए.
5. अगले एक साल तक, जब तक फसल कटकर घर नहीं आ जाती, इन पीड़ित परिवारों को मनरेगा में 300 दिन काम देना और ग्राम पंचायत के जरिये मुफ्त राशन देना सुनिश्चित किया जाए. काम न दे पाने की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता देना सुनिश्चित किया जाए.
6. वन विभाग की सूची में शामिल बिरनपुर गांव के सभी लोगों को आवासीय पट्टे दिए जाएं.
अंतिम टिप्पणी
वर्ष 2015 से ही यदि पुलिस और जिला प्रशासन इस मामले में सही हस्तक्षेप करती, तो वन भूमि से भगाने के लिए आदिवासियों पर बार-बार हमले नहीं होते. ताजा हमले के राष्ट्रीय मीडिया में उछलने के बाद भी ऐसा नहीं लगता कि प्रशासन की संवेदना जागी हो. हमलावरों के खिलाफ अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है, जबकि प्रशासन का कर्तव्य था कि पीड़ित आदिवासियों को न्याय दिलाने के लिए आगे आता. नागरिकों की जान-माल की हिफाजत करने की जिम्मेदारी से सरकार और प्रशासन मुकर रहा है. इससे हमलावरों को मिल रहा प्रशासनिक संरक्षण साफ़ है. आज 27 अक्टूबर को भी कलेक्टर के निर्देश के बावजूद और पीड़ित आदिवासी परिवारों को उनके द्वारा दिए गए आश्वासन के अनुरूप एसडीएम जांच के लिए पीड़ितों के गांव में नहीं पहुंचे. इससे साफ़ है कि प्रशासन द्वारा हमलावर अपराधियों को बचाने का खेल खेला जा रहा है. इस जघन्य आगजनी कांड के 15 दिनों बाद और राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में आने के बाद भी प्रशासन का कोई अधिकारी पीड़ितों की सुध लेने उनके गांव नहीं पहुंचा है.
जांच दल ने मीडिया में आई बेदखली संबंधी कुछ अन्य खबरों का भी संज्ञान लिया है. इससे पता चलता है कि जिले में इसके पहले भी आदिवासियों को उनकी कब्जे की वन भूमि से भगाने के लिए सुनियोजित हमले हुए हैं और इन हमलों में वन विभाग की स्पष्ट संलिप्तता रही है. चार साल पहले वर्ष 13 अक्टूबर 2016 को धमतरी विकासखंड के डूब प्रभावित ग्राम ठेमसरा के कांसीबाहरा तथा छेरीपठार रिज़र्व फारेस्ट क्षेत्र में वर्ष 2011 से झोपड़ी बनाकर रह रहे 80 आदिवासी परिवारों को खदेड़ने के किए वन विभाग के कारिंदों ने उनकी झोपड़ियों में आग लगा दी थी तथा झोपड़ियों के भीतर रखे सामानों को लूट लिया था. तत्कालीन कलेक्टर सी आर प्रसन्ना ने पीड़ित आदिवासियों को पुनर्वास का आश्वासन दिया था, जो आज तक पूरा नहीं हुआ, *(दैनिक भास्कर की रिपोर्ट)*. इसी प्रकार *आईबीसी 24* की रिपोर्ट में दक्षिण सिंगपुर गांव में रहने वाले आदिवासियों का आरोप है कि उन्हें विस्थापित करने के लिए वन विभाग द्वारा फर्जी मुक़दमे बनाकर जेल में भेजा जा रहा है.
जरूरत इस बात की है कि बतकही और दावों से ऊपर उठकर राज्य सरकार वनाधिकार कानून को उसके शब्दों और भावनाओं के अनुरूप क्रियान्वित करें, ताकि प्रदेश में आदिवासियों के साथ प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा जारी ‘ऐतिहासिक अन्याय’ दूर हो सके. इस दिशा में दुगली के आदिवासियों पर जारी उत्पीड़न की न्यायिक जांच होनी चाहिए और उन्हें तत्काल राहत देने के लिए उनकी मांगों को स्वीकार किया जाना चाहिए, जो किसी भी रूप में न तो गैर-कानूनी है और न ही राज्य सरकार के बस के बाहर की बात है.

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