विश्वकर्मा जयंती : एक गतिशील पद्धति कर्म योग से जीवन जीने का एक मार्ग प्राप्त होता है – महेश अग्रवाल
भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने कहा कि समस्त संसारिक वस्तुओं के सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्ट्र की उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए। विश्वकर्मा जयंती को प्रतिवर्ष 17 सितम्बर के दिन उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह दिन लगभग पुरे भारत में विधि के अनुसार मनाया जाता है। इस दिन सबसे बड़े वास्तुकार भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है। इतिहास के अनुसार भगवान विश्वकर्मा को देवशिल्पी यानी की देवताओं के वास्तुकार के रूप में पूजा जाता है। हम सभी के जीवन में शिल्प का अत्यधिक महत्व है। कोई भी घर, मकान, भवन, नवीन रचना का काम शिल्प के अंतर्गत ही आता है। कुशल शिल्प विद्द्या और ज्ञान से मनुष्य विशाल इमारते, पुल, वायुयान, रेल, सड़क पानी के जहाज, वाहन आदि बनाता है। आधुनिक समय में इंजीनियर, मिस्त्री, वेल्डर, मकेनिक जैसे पेशेवर लोग शिल्प निर्माण का काम करते है। यदि मनुष्य के पास शिल्प ज्ञान न हो तो वह कोई भी भवन, इमारत नही बना पायेगा।
योग गुरु अग्रवाल ने इस अवसर पर बताया कि योग विज्ञान के अनुसार मानव कई तत्त्वों से निर्मित है। योग दर्शन कहता है कि भौतिक शरीर एक आयाम है, भावनात्मक शरीर दूसरा आयाम है, मानसिक शरीर तीसरा आयाम है और बौद्धिक शरीर हमारा चौथा आयाम है। भौतिक, संवेगात्मक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक और आध्यात्मिक आयामों का संघटित स्वरूप यह मानव जीवन अथवा मानवीय अस्तित्व है।अगर इन विविध शरीरों की आवश्यकता को पूरा करने का प्रयास करेंगे तो कौन-सी यौगिक पद्धति अपनायेंगे? जैसे मोटरकार में कई कल-पुर्जे होते हैं और हर पुर्जे का अपना महत्त्व है। विद्युत संबंधी गड़बड़ी होने पर बिजली मिस्त्री को बुलाते हैं, न कि सामान्य किसी मिस्त्री को। उसी प्रकार जब हम इस भौतिक शरीर की बात करते हैं, भावात्मक, मानसिक आदि पक्षों की बात करते हैं तो यह सामान्य बात हुई। शरीर एक सामान्य पद है। उसे विश्लेषित करना होगा।
सबसे महत्त्वपूर्ण चीज है हमारा दैनिक जीवन, हमारा मत, हमारी महत्त्वाकांक्षायें, परिवार, सफलता, विफलता। होश संभालने से मृत्युपर्यन्त हमारे समक्ष बहुत सारी समस्याएँ आती हैं और कभी-कभी इनके कारण हम अपना संतुलन नहीं रख पाते, हम आत्म-नियंत्रण खो बैठते हैं। इस हालत में हम आसामान्य हो जाते हैं, हमारा मन व्याधिग्रस्त हो जाता है। इस अवस्था के लिए एक योग है- कर्मयोग। यह एक गत्यात्मक विधि है जो मानव को दैनंदिन अनुभूतियों से जोड़ती है। कर्मयोग द्वारा सम्पूर्ण अनुभूतियों से हमारा संबंध जुड़ता है। यह विज्ञान हमारे दैनिक कार्यों प्रातः काल से रात्रि तक के कार्यों से संबंधित है। वैकल्पिक लाभ के लिए किए गए कार्यों से भी इसका संबंध है। कर्मयोग के दर्शन के अन्तर्गत हमारे सभी कार्य-व्यापार, स्वार्थ-परमार्थ से जुड़ी सभी गतिविधियाँ आ जाती हैं।
कर्मयोग में जीवन जीने का एक मार्ग प्राप्त होता है। भगवद् गीता के सिवा और कोई शास्त्रीय ग्रंथ कर्मयोग पर नहीं है। यह लघुग्रंथ है और इसका विषय सरल है। इसमें अट्ठारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में किसी एक योग की चर्चा है। प्रथम अध्याय विषाद- योग है। आपने हठ-योग, लय-योग, क्रिया-योग, नाद-योग, सिद्ध योग और कर्म-योग सुना है, पर कभी विषाद-योग सुनने में आया है? जब हम हताश और निराश हो जाते हैं, जब जीवन में हर कुछ छिन्न-भिन्न हो जाता है, तब हमारे मन की क्या दशा होती है? जब हर चीज हमारे विपरीत हो जाती है, जब हमारे ऊपर द्वन्द्व हावी हो जाता है, जब हम अनिश्चय के भंवर में फँस जाते हैं, जब हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, तो हमारे मन की क्या दशा होती है? मन की उसी दशा को विषाद योग कहते हैं।
तो, हम इस निराशा और हताशा से कैसे उबरें? जब घबराहट के कारण हमारा शरीर काँपने लगता है, हमारी हथेली से पसीना छूटने लगता है, गला अवरुद्ध हो जाता है, जब निषेधात्मक तत्त्व हमारे मन के ऊपर मंडराने लगते हैं, जब हमें लगता है कि मृत्यु सामने खड़ी है, हमारी पत्नी हमसे बिछुड़ रही है, हमारी सम्पत्ति नष्ट-भ्रष्ट होने जा रही है, तब कौन-सा योग उपयोगी होगा? जब हमें लगे कि सर्वत्र अपशकुन हो रहा है, हमारे चारों ओर अंधकार छा गया है, तब कौन-सा योग हमारे लिए उपयोगी होगा? भगवत् गीता का कथन है कि इस मनोदशा में कर्म योग ही एक मात्र सहारा है। कर्म योग द्वारा मन की हताशा, दुराशा, अवसाद, कुण्ठा का निराकरण हो सकता है। कर्म योग है क्या? हम प्रतिदिन काम करते हैं। चिकित्सक, व्यवसायी, कामगार, गृहस्थ सभी काम करते हैं, पर यह कर्मयोग नहीं है, कर्म है। कर्म योग योग का एक प्रकार है जिसके पीछे एक दर्शन है। यह वह योग है जिसमें हम जीवन के हर कार्य-व्यापार में संलग्न होते हैं, पर सिर्फ कार्य करते हैं, उसमें लिप्त नहीं होते। यह बड़ी सूक्ष्म बात है – कार्य-व्यापार में भाग लेते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना।