जयंती विशेष : जब पाकिस्तानी मंसूबों पर सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा रोघोवा राणे ने फेरा था पानी
नई दिल्ली. आजादी के बाद जब पाकिस्तान (Pakistan) ने अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देना शुरू किया, तो भारतीय सैनिकों ने उसका न केवल डटकर मुकाबला किया, बल्कि उसे शिकस्त का एक ऐसा जख्म दिया, जो आज तक नहीं भर पाया है. पाकिस्तानी मंसूबों को ध्वस्त करने में यूं तो पूरी सेना ने ही अपना पराक्रम दिखाया, लेकिन सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा रोघोवा राणे (Rama Raghoba Rane) की भूमिका बेहद अहम् रही. जिसके लिए उन्हें परमवीर चक्र (Param Vir Chakra) से भी सम्मानित किया गया.
रामा रोघोवा राणे का जन्म 26 जून 1918 को कर्णाटक के चंदिया गांव में हुआ था. उनके पिता राज्य पुलिस में सिपाही के पद पर तैनात थे. महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित राणे देश के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छा के चलते सेना में भर्ती हुए. 10 जुलाई 1940 को उनके सैन्य जीवन की शुरुआत बांबे इंजीनियर्स के साथ हुई. उन्हें सबसे पहले 26वीं इन्फैंट्री डिवीजन की इंजीनियरिंग यूनिट में तैनात किया गया, जो उस दौरान बर्मा बार्डर पर जापानियों से लोहा ले रही थी. उन्होंने यहां अदम्य साहस का परिचय दिया, जिसके चलते उन्हें जल्द ही सेकेंड लेफ़्टिनेंट के रूप में कमीशंड ऑफिसर बना दिया गया. इस तरक्की के बाद उनकी तैनाती जम्मू और कश्मीर में कर दी गई.
सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे की जम्मू और कश्मीर में तैनाती उस समय की गई, जब भारत और पाकिस्तान के बीच 1947 का युद्ध जोरों पर था. अब तक भारतीय सेना ने दुश्मन सेना को करारी मात देते हुए नौशेरा की जीत हासिल कर ली थी. इस जीत के साथ भारतीय सेना ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए आक्रामक रुख अख्तियार करने का फैसला लिया. नई रणनीति के तहत बारवाली रिज, चिंगास और राजौरी पर कब्जा करने के लिए नौशेरा-राजौरी मार्ग में आने वालीं भौगोलिक रुकावटों और दुश्मनों की सुरंगों को साफ करना बेहद जरूरी था. जिसे रामा राघोबा और उनकी टाम ने बखूबी कर दिखाया. इसकी बदौलत 18 मार्च 1948 को 50 पैराब्रिगेड तथा 19 इंफेंट्री ब्रिगेड ने झांगार पर दोबारा जीत हासिल की.
भारतीय सेना के विजय अभियान में सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे की भूमिका सबसे अहम रही. युद्ध के दौरान उन्होंने रास्ते में पड़ने वाले अवरोध ओर माइन क्षेत्रों का सफाया कर भारतीय सेना के लिए सुरक्षित रास्ता उपलब्ध कराया. जिससे लड़ाई के लिए टैंकों को मोर्चो तक सफलता पूर्वक पहुंचाया जाना संभव हुआ. सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे की वीरता के लिए उन्हें 8 अप्रैल 1948 को सेना के सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. वे 1968 में सेवानिवृत्त हुए और 11 जुलाई 1994 को उनका निधन हो गया.