भाजपायी चुनाव आयोग


(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

सोशल मीडिया में पिछले कुछ हफ्तों से एक मजाक चल रहा था। चुनाव आयोग ने इसका जोरदार तरीके से खंडन किया है कि उसने भाजपा में विलय कर लिया है ; आयोग ने कहा है कि वह भाजपा सरकार का बाहर से ही समर्थन करता रहेगा! मुख्य चुनाव आयुक्त, ज्ञानेश कुमार की पहली खुली प्रेस कान्फ्रेंस के बाद ऐसा लगता है कि उस मजाक को अपडेट करने का समय आ गया है। चुनाव आयोग अब और बाहर से समर्थन नहीं देता रह सकता है। ‘विदेशी घुसपैठ’ के खतरों को देखते हुए, उसने भाजपा में विलय का फैसला कर लिया है। व्यवहार में वर्तमान चुनाव आयोग के इस फैसले का ऐलान जिस संवाददाता सम्मेलन में किया गया है, वह कहने को तो पूरे चुनाव आयोग की ही प्रेस कान्फ्रेंस थी। तीनों चुनाव आयुक्त मंच पर मौजूद भी थे। लेकिन, बोलने का काम सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने ही किया। इसलिए, अभी निश्चयपूर्वक यह कहना मुश्किल है कि चुनाव आयोग के भाजपा में इस विलय में, पूरे चुनाव आयोग की पूर्ण सहमति है या नहीं!

बेशक, चुनाव आयोग ने अब भी भाजपा में विलय की औपचारिक घोषणा नहीं की है। उल्टे उसने संवाददाता सम्मेलन में तो इसका भी दावा करने की कोशिश की है कि वह न पक्ष में है, न विपक्ष में, वह तो निष्पक्ष है। लेकिन, संवाददाता सम्मेलन में मुख्य चुनाव आयुक्त की प्रस्तुति और सवालों के जवाब का जो मुख्य स्वर था, उसने निष्पक्षता के इस दावे का मजाक ही बनाकर रख दिया। चुनाव आयोग का यह संवाददाता सम्मेलन, चुनावों के मामले में उसकी निष्पक्षता और विशेष रूप से मतदाता सूचियों की गड़बड़ियों के संबंध में लगातार सघन होते संदेहों और बढ़ते सवालों की पृष्ठभूमि में हो रहा था। इन सवालों में एक ओर अगर बिहार पर थोपी गयी एसआईआर नाम की अभूतपूर्व प्रक्रिया को लेकर बेशुमार सवाल हैं, तो दूसरी ओर पिछले चुनावों की मतदाता सूचियों को और इसलिए, चुनावों को लेकर गंभीर सवाल भी हैं।

ये बाद वाले सवाल, महाराष्ट्र के विधानसभाई चुनाव के समय से तथा खासतौर पर उस चुनाव में भाजपा-नीत मोर्चे की अप्रत्याशित जीत के बाद से लगातार उठते रहे थे। फिर भी इन सवालों को, कर्नाटक की बंगलूरु सेंट्रल लोकसभा सीट के अंतर्गत, महादेवपुरा विधानसभाई सीट की मतदाता सूची के विस्तृत विश्लेषण के आधार पर, इसी महीने के शुरू में संसद में विपक्ष के नेता, राहुल गांधी द्वारा लगाए गए मतदाता सूचियों में गड़बड़ी के जरिए, चुनाव में धांधली के आरोपों ने, एक नयी धार दे दी है। इसी की पृष्ठभूमि में बिहार में, जहां मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण या एसआईआर की प्रक्रिया जारी है और इस प्रक्रिया से निकलकर तैयार की
जाने वाली अंतिम मतदाता सूचियों के आधार पर, इसी साल के आखिरी महीनों में विधानसभाई चुनाव होने जा रहे हैं, इंडिया गठबंधन द्वारा जिस रोज नेता विपक्ष, राहुल गांधी की अगुआई में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ की शुरूआत की जा रही थी, ठीक वही दिन तथा समय, चुनाव आयोग ने अपनी इस लड़ाकू-मुद्रावाली प्रेस कान्फ्रेंस के लिए चुना था।

ऐसे में चुनाव अयोग का नेता विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का गंभीरता से तथा भरोसा पैदा करने वाले तरीके से जवाब देने के बजाय, चुनौती और धमकी के स्वर में यह कहना कि दो ही विकल्प हैं, या तो (राहुल गांधी या अन्य सवाल उठाने वाले) एक हफ्ते में एफिडेविट दें या देश से माफी मांगें, और कोई विकल्प नहीं है ; दिखाता है कि निष्पक्ष एंपायर या रेफरी की भूमिका को छोड़कर, आयोग ने ‘खिलाड़ी’ की भूमिका संभाल ली है। वह अपनी भूमिका विपक्ष के विपक्ष यानी सत्तापक्ष के खिलाड़ी की ही मान रहा है। इस संबंध में अगर कोई कसर रह भी गयी थी, तो उसे इस सवाल पर चुनाव आयोग की बहुत ही मुखर चुप्पी ने दूर कर दिया कि जब राहुल गांधी जैसे ही सवाल, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता की हैसियत से, अनुराग ठाकुर ने उठाए थे और वास्तव में भाजपा सांसद ने तो छ:-छ: संसदीय क्षेत्रों में मतदाता सूचियों में लाखों वोटों की हेरा-फेरी के जरिए चुनाव गड़बड़ी के आरोप लगाए थे, तब उनके साथ, उनके आरोपों के साथ चुनाव आयोग का सलूक, राहुल गांधी के साथ उसके सलूक से इतना भिन्न क्यों था? क्या अनुराग ठाकुर के आरोपों को चुनाव आयोग अपना ‘घरेलू’ या ‘अंदरूनी’ मामला समझता है, जिनका असली मकसद तो उसकी गड़बड़ियों पर पर्दा डालना ही है। चुनाव आयोग के अपना पक्ष चुन लेने का इससे स्पष्ट सबूत और क्या होगा?

अब तक करीब सभी जान चुके हैं कि राहुल गांधी ने महादेवपुरा विधानसभाई सीट की खुद चुनाव आयोग द्वारा ही फोटो प्रिंटआउट के रूप में दी गयी मतदाता सूची के विश्लेषण के आधार पर, करीब छ: लाख मतदाताओं में से एक लाख से ज्यादा मतदाताओं के मामले में गड़बड़ियां पकड़ी थीं और इनके आधार पर इन मतदाताओं की वैधता पर सवाल उठाए थे। इन गड़बड़ियों में फर्जी पता, छोटे-छोटे घरों में साठ-साठ, अस्सी-अस्सी रजिस्टर्ड वोट, कई-कई जगहों पर रजिस्टर्ड वोट, फार्म-6 के जरिए नये वोटर के तौर पर बनाए गए, सत्तर-सत्तर, अस्सी-अस्सी साल की उम्र के पहली बार के वोटर, बिना तस्वीर के या इतनी छोटी तस्वीर वाले वोटर, जिनकी तस्वीर से किसी की पहचान हो ही नहीं सकती है, आदि शामिल हैं। किसी निष्पक्ष रैफरी की सामान्य प्रतिक्रिया तो यही होती कि बड़े पैमाने की जिन गड़बड़ियों को इंगित किया गया है, उनका स्वत: संज्ञान लेकर आयोग जांच कराएगा और त्रुटियों को दूर करेगा, ताकि चुनाव और निष्कलंक हो सकें। लेकिन, चुनाव आयोग ने तो शुरू से ही गड़बड़ियों को इंगित करने वालों के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख अपनाया, जैसे उसी की चोरी पकड़ी गयी हो और उन्हें डरा-धमका कर, ‘सब चंगा सी’ की मुद्रा प्रदर्शित करने की कोशिश की। याद रहे कि ऐसा सिर्फ राहुल गांधी द्वारा लगाए गए आरोपों के मामले में ही नहीं किया गया, बल्कि बिहार की एसआईआर प्रक्रिया के पहले चरण में हुई भारी गड़बड़ियों को ढांपने के लिए, और पहले से यही किया जा रहा था। इस सिलसिले में प्रतिष्ठित पत्रकार, अजीत अंजुम के खिलाफ बाकायदा एफआईआर तक दायर करायी गयी थी।

चुनाव आयोग की ऐसी ही झगड़ालू स्तर प्राधिकार वाली प्रतिक्रिया, गड़बड़ियों के इन भंडाफोड़ों के संदर्भ में और भी बलपूर्वक उठी इसकी मांगों पर देखने को मिली कि मतदाता सूचियां, मशीन रीडेबल या डिजिटल फार्मेट में मुहैया करायी जाएं, न कि सिर्फ इमेज फार्मेट में, जिसमें अब दी जाने लगी हैं। मशीन रीडेबल फार्मेट में कंप्यूटर और आर्टिफिशियल इंटैलीजेंस की मदद से, विशाल सूचियों को भी आसानी से छाना जा सकता है और उनकी तरह-तरह की गड़बड़ियों को पकड़ा जा सकता है। जहां चुनाव आयोग के पास इस फार्मेट में सूची उपलब्ध होने के बावजूद, मतदाता सूचियों में इस तरह की गड़बड़ियों का बने रहना, उसकी लापरवाही से लेकर गड़बड़ियों में मिलीभगत तक की ओर इशारा करता है, वहीं विपक्ष के मांगने पर भी चुनाव आयोग का ऐसे फार्मेट में सूचियां न देने की जिद पकड़ना, आयोग की मिलीभगत के ही संदेहों को बढ़ाता है। इसके बावजूद, ज्ञानेश कुमार ने न सिर्फ मशीन रीडेबल फार्मेट में मतदाता सूचियां देने से अपने इंकार को उचित ठहराने की कोशिश की है, इसके लिए निजता के अधिकार के उल्लंघन से लेकर, सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की झूठी दलीलें दी हैं। सच्चाई यह है कि इस तरह के फार्मेट में सूचियांं उपलब्ध कराने में निजता के अधिकार का कोई उल्लंघन देखने के बजाय, सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर प्रक्रिया में ड्राप हुए 65 लाख लोगों की सूची देने के अपने आदेश में, विशेष रूप से इसका निर्देश दिया है कि सूची मशीन रीडेबल फार्मेट में दी जाए। दूसरी ओर, चुनाव आयोग मतदाता सूची के फार्मेट को पर्दापोशी का हथियार बनाने पर किस कदर वजिद है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बिहार में एसआईआर के पहले चरण के अंत में 1 अगस्त को कच्ची मतदाता सूची, मशीन रीडेबल फार्मेट में डाल दी गयी थी। लेकिन, चार-पांच दिन में ही चुनाव आयोग को अपनी ‘गलती’ का एहसास हो गया और उसने इस कच्ची सूची का फार्मेट बदलकर मशीन नान-रीडेबल कर दिया।
मशीन रीडेबल सूचियों के खिलाफ चुनाव आयोग की निजता के अधिकार की दलील इसलिए और भी बेतुकी है कि सूची के मशीन रीडेबल फार्मेट में, दूसरे फार्मेट के अलावा कोई अतिरिक्त जानकारी तो होती नहीं है, जो निजता के अधिकार के पहलू से दोनों सूचियों में कोई अंतर हो। दोनों प्रकार की सूचियों में अंतर इतना ही होता है कि मशीन रीडेबल सूची न मिलने से, कांग्रेस पार्टी को एक महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची की छानबीन कर गड़बड़ियों का पता लगाने में चार महीने से ज्यादा लग गए। दूसरी ओर, संभवत: किसी प्रकार से मशीन रीडेबल फार्मेट में सूची उपलब्ध होने के बल पर, अनुराग ठाकुर के लिए सिर्फ छ: दिन में छ: लोकसभाई क्षेत्रों की मतदाता सूचियों का, उसी प्रकार की गड़बड़ियों के लिए विश्लेषण करना संभव हो गया। इसी प्रकार, मतदान की वीडियोग्राफी का रिकार्ड उपलब्ध न कराने के लिए ज्ञानेश कुमार ने जो ‘बहन-बहुओं-बेटियों’ की वीडियोग्राफी नहीं देने की दलील दी है, और भी ज्यादा खोखली है। मतदान केंद्र की वीडियोग्राफी में ऐसा क्या हो सकता है, जिसका चुनाव आयोग के सिवा किसी और का देखना आपत्ति का कारण हो सकता हो। जाहिर है कि ये सब धांधलियों को ढांपने के बहाने हैं।

हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे चुनाव आयोग से बिहार में एसआईआर प्रक्रिया के थोपे जाने की जरूरत से लेकर, उस प्रक्रिया में पहले ही उजागर हो चुकी गड़बड़ियों तक, एक भी सवाल का विश्वसनीय जवाब नहीं दिया गया है। एक-एक वोटर के साथ, गरीब वोटरों के साथ ‘चट्टान की तरह खड़े रहने’ की डॉयलागबाजी को छोड़कर, चुनाव आयोग न तो इसका जवाब दे पाया है कि कैसे भारी संख्या में मृतक कच्ची मतदाता सूचियों में पहुंच गए हैं, जबकि और भी बड़ी संख्या में जिंदा वोटर, सूची से बाहर कर दिए गए हैं। यहां तक कि आयोग यह तक नहीं बता पाया कि बिहार में कितने संभावित वोटरों के फार्म संबंधित दस्तावेजों के साथ प्राप्त हुए हैं तथा कितने के बिना संबंधित दस्तावेजों के और कितने के मतदाता फार्म पर बीएलओ ने नॉन-रिकमंडेड पर निशान लगाया है। यह भी कि इन नॉन-रिकमंडेड या बिना दस्तावेज के फार्म वालों का क्या होगा? इन हालात में जब चुनाव आयोग ज्यादा से ज्यादा सत्तापक्ष की चोरी की चौकीदारी का काम कर रहा है, बिहार की राजनीतिक रूप से जागरूक जनता विपक्ष की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ को अभूतपूर्व समर्थन नहीं दे, तो ही हैरानी की बात होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!