संवेदनशीलों द्वारा…मनोरोग से पीड़ित जैसा कर रहे है निर्णय…
क्या जजों के नियुक्ति के पूर्व ऐसी कोई प्रक्रिया है जिसमें इनकी दिमागी परीक्षण या दिमागी जांच हो सके जिससे यह पता चले कि किसी प्रकार के मनोरोग से ग्रसित तो नहीं है?
हालिया हाईकोर्ट बिलासपुर छत्तीसगढ़ और प्रयागराज (इलाहाबाद) उत्तरप्रदेश दो निर्णयों ने
दिलो दिमाग झजकोर कर रख दिया है ।
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के जस्टिस नरेंद्र कुमार व्यास की एकलपीठ ने 10 फरवरी को फ़ैसला सुनाते हुए अपने फैसले कहा कि पति का पत्नी के साथ जबरन अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना सज़ा के दायरे में नहीं आता है और भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार), 377 (अप्राकृतिक यौन संबंध) और 304 (गैर-इरादतन हत्या) के मामलों में दोषमुक्त करार दिया और अभियुक्त को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।
जस्टिस व्यास ने कहा, “अगर पत्नी की उम्र 15 साल या उससे अधिक है, तो पति का अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं माना जाएगा। ऐसे में अप्राकृतिक कृत्य के लिए पत्नी की सहमति नहीं मिलना भी महत्वहीन हो जाता है।”
जस्टिस व्यास ने कहा कि आईपीसी की धारा 375 के तहत अपवाद-2 के प्रावधान के मुताबिक, पति का अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं हैं, इसलिए यदि पति ने धारा 377 के तहत परिभाषित किसी अप्राकृतिक कृत्य को भी अंजाम दिया है, तो उसे भी अपराध नहीं माना जा सकता।
ऐसा ही झझकोर देने वाला दूसरा निर्णय प्रयागराज (इलाहाबाद) हाई कोर्ट ने20 मार्च 2025 जस्टिस राममनोहर नारायण मिश्रा के द्वारा दिया गया बेंच ने अपने एक फ़ैसले में कहा है कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट्स को छूना और पायजामी की डोरी तोड़ने को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है।
पत्नी के साथ जबरन अननेचुरल सेक्स मामला और पीड़िता के प्राइवेट पार्ट्स को छूना और पायजामी की डोरी तोड़ने को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जाना इन दोनों मामलों में आरोपियों को बरी करने के छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट और प्रयागराज (इलाहाबाद) हाईकोर्ट के फ़ैसले का दूरगामी असर क्या होगा ?
यह सवाल इस लिए खड़ा हो रहा है हाई कोर्ट के इस फ़ैसले से मैरिटल रेप और बिना सहमति से बनाए गए अप्राकृतिक यौन संबंधों और पीड़िताओं के प्राइवेट पार्ट को छूना और पायजामी का नाड़ा तोड़ना बलात्कार या जबरन संभोग के लिए उकसाना को नहीं मानना
को लेकर भारत के कानून में मौजूद खामियों पर एक बार फिर चर्चा तेज़ हो गई है।
असल में, ये फैसले किसी न किसी रूप में पतियों और जाने अनजाने व्यक्तियों के द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने और प्राइवेट पार्ट को छूना और पायजामी का नाड़ा तोड़ना बलात्कार या जबरन संभोग के लिए उकसाना
की कोशिशों को बढ़ावा ही मिलेगा क्योंकि इसके बदले में उन्हें कोई सजा या दंड नहीं मिलेगा।
क्या जाने अनजाने व्यक्तियों और पति होने के नाम पर किसी महिला और नाबालिको के साथ सभ्य समाज में जानवरों जैसा व्यवहार करना स्वीकार्य नहीं किया सकता।
क्या इन निर्णयों से समाज में इस बात पर भी बहस छिड़ गई है क्या न्यायधीशों की नियुक्ति के पूर्व उनके दिमागी संतुलन का प्रशिक्षण या सरल शब्दों में कहा जाय तो दिमागी जांच होनी चाहिए?
इन निर्णयों में यह बिल्कुल भी नहीं देखा गया कि उन लोगों की मंशा क्या थी सजा मंशा पर मिलना चाहिए न कि दुष्कर्म होजने पर इसी तरह पतियों को एकाधिकार नहीं मिल जाना चाहिए कि पत्नी है तो पत्नी के बर्बरता करता रहे ।
राकेश प्रताप सिंह परिहार ( कार्यकारी अध्यक्ष अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति , पत्रकार सुरक्षा कानून के लिए संघर्षरत)