नवरात्र के आठवें दिवस माता के महागौरी स्वरुप का पूजन किया जाता है
नवरात्र के आठवें दिवस माता के महागौरी स्वरुप का पूजन किया जाता है जिस हेतु अग्रलिखित मंत्र का जाप करते हुए हम माता के तत्व में ध्यान केंद्रित करते हैं
या देवी सर्वभूतेषु मां गौरी रुपेण संस्थिता!
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः! !
अर्थात् – हे मॉं ! सर्वत्र विराजमान एवं महागौरी के स्वरुप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मैं पुन:-पुन: नमन करती हूॅं।
माता का स्वरुप ऐसा है जिसमें माता का वर्ण श्वेत है तथा उन्होंने श्वेत वस्त्र ही धारण भी किया हुआ है, उनका वाहन वृषभ अर्थात् बैल है तथा उसका भी रंग पूर्णतः सफेद है, इनके चार हस्त हैं जिनमें ऊपर वाला दायां हस्त अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाले दाएं हस्त में त्रिशूल विद्यमान है, ऊपर वाले बाएं हस्त में डमरु स्थित है तथा नीचे वाला बायां हस्त वरमुद्रा में है, इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है। जब जीव के अंदर चल रहे ज्ञान व अज्ञान रुपी उग्र संघर्ष की स्थिति पर विजय प्राप्त करता हुआ स्वयं जीव अथवा मनुष्य उचित व अनुचित का भेद जानकर उस उग्र रुप का स्वयं में आकलन करता हुआ स्वयं को अज्ञान की दासता से मुक्त कर लेता है तब उसका साक्षात्कार उसकी आत्मा से होता है तथा वह आत्मा की दिव्य ऊर्जा से तृप्त होकर आत्मा में ही लीन हो जाता है तथा अपने अस्तित्व की वास्तविकता से परिचित हो जाता है, इसी तथ्य को समस्त रुप से माता का श्वेत वर्ण प्रदर्शित कर रहा है, आत्मा में लीन हो जाने पर मनुष्य समस्त प्रकार से भयमुक्त हो जाता है, जो माता के अभयमुद्रा में सुशोभित हस्त द्वारा स्पष्ट हो रहा है। जिस प्रकार माता ने महागौरी स्वरुप में शीव जी का वरण करने हेतु घनघोर तप कर शीव जी का सानिध्य प्राप्त किया था तथा अपने कालिमा पूर्ण स्वरुप से मुक्त होकर यह श्वेत वर्ण पाया था, उसी प्रकार जब आत्मा दृढ संकल्पित होकर अपने परमात्मा रुपी लक्ष्य को प्राप्त करती है तब आत्मा संतुष्ट होकर शांत हो जाती है, यहॉं माता हमारी आत्मा तथा शीव परमात्मा के स्वरुप हैं, जिस प्रकार आत्मा परमात्मा का ही अंश तत्व है उसी प्रकार शक्ति भी शीव का तथा शीव शक्ति के ही अंश हैं। वृषभ उसी दृढ आत्मबल का परिचायक है जिसकी सहायता प्राप्त कर मनुष्य को आखिरी लक्ष्य की प्राप्ति होती है, इस अवस्था में परमपिता अथवा परमात्मा तथा प्रकृति अथवा माता की मिश्रित सशक्त ऊर्जा सकारात्मक रुप में मनुष्य के अंदर प्रवाहित होती है, उन्हीं परमपिता के रौद्र स्वरूप का सूचक माता के हस्त में स्थित त्रिशूल है, डमरु से ऐसे दिव्य नाद का विस्तार होता है जो मन को बॉंधकर रखता है, इससे मन भी निरंतर ब्रह्म में ही केंद्रित हो पाता है तथा व्यर्थ के विचारों को हमारे अंदर रोपित नहीं करता है, इसी हेतु माता के हस्त में डमरु सुशोभित है ताकि लक्ष्य से परिचित हुआ जीव पुन: अपने मार्ग से ना भटके। इस प्रकार परम शांति को प्राप्त हुआ जीव वास्तव में परमात्मा के परम तत्व को प्राप्त हो जाने का अधिकारी हो जाता है, माता का वरमुद्रा में सुशोभित हस्त जीव के उसी परम सामर्थ्य का परिचायक है। इस प्रकार अर्थ को जानते हुए किया गया पूजन माता को अति प्रिय है, माता सभी भक्तों का कल्याण करें .
लेखिका – नेहा सिंह राजपूत