September 5, 2021
शिक्षक दिवस – प्रभावशाली शिक्षण के लिए व्यक्तित्व के शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक स्तरों को समन्वित करना आवश्यक है : महेश अग्रवाल
भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि 5 सितंबर को भारत में शिक्षक दिवस के रुप में घोषित किया गया है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को हुआ था इसलिये अध्यापन पेशे के प्रति उनके प्यार और लगाव के कारण उनके जन्मदिन पर पूरे भारत में शिक्षक दिवस मनाया जाता है।
योग गुरु अग्रवाल ने इस अवसर पर बताया कि बच्चे के व्यक्तित्व का जागरण और संयोजन के लिए योग बहुत उपयोगी है | यदि आप सामान्य योग-कक्षाओं में जायेंगे तो पायेंगे कि उनमें भाग लेने वालों में अधिकतर शिक्षक और शिक्षाविद हैं। शिक्षा व्यवसाय से जुड़े इतने लोग योग का अभ्यास क्यों करते हैं? व्यक्तिगत रूप से मेरा ऐसा मानना हैं। कि धीरे-धीरे योग अधिक-से-अधिक महत्वपूर्ण होता जायेगा क्योंकि इसका अभ्यास करने वाले स्कूली शिक्षकों की संख्या बढ़ती जा रही है। अधिक-से अधिक स्कूली शिक्षक योग का अभ्यास कर रहे हैं। योग का अभ्यास करने का कारण यह है कि प्रतिदिन कक्षाओं में उपस्थित रहने के परिणामस्वरूप उनकी प्राणशक्ति का क्षय होता है। पहले लोग कठिन शारीरिक परिश्रम किया करते थे। वे लकड़ी काटते थे, कुएँ से पानी खींचते थे, जमीन पर हाथों से पॉलिश करते थे और ऐसे ही अन्य शारीरिक कार्य किया करते थे। अब वे कठिन काम नहीं करते हैं फिर भी बहुत थक जाते हैं। शिक्षक सामान्यतः अधिक शारीरिक श्रम नहीं करते हैं, और उन्हें अनेक छुट्टियाँ भी मिलती हैं फिर भी वे बहुत थक जाते हैं। जब छुट्टियाँ आती हैं, शिक्षक वास्तव में क्लांत हो चुके होते हैं। उन लोगों ने इस बात को समझा है कि क्लांति को केवल निद्रा से दूर नहीं किया जा सकता है। कोई ऐसा उपाय होना चाहिए जिसके माध्यम से पढ़ाने के क्रम में क्षीण हुई ऊर्जा पुनः प्राप्त की जा सके। शिक्षण अत्यधिक थका देने वाला काम है लेकिन यह पता लगाना बड़ा मुश्किल है कि यह थकान कहाँ से आती है। योगाभ्यास के परिणामस्वरूप ऊर्जा-स्तर में वृद्धि होती है एवं अपने कर्तव्य का सही ढंग से निर्वाह कर सकते है ।
*योग एवं कक्षा की समस्याएँ* – पारंपरिक कक्षा में शिक्षक का सामना किस प्रकार की समस्याओं से होता है और योग उन्हें किस प्रकार दूर कर सकता है? सर्वप्रथम यह कार्य क्लांतिकर इसलिए होता है कि बच्चों को बहुत क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है। चूँकि उन्हें कक्षा में तीन से छः घंटों तक एक स्थान पर बैठे रहना होता है, इसलिए वे अंत में उत्तेजित और चिड़चिड़े हो जाते हैं, तथा उछल-कूद और गपशप करना चाहते हैं। अतः शिक्षक कहते हैं, ‘शांत रहो!’ ‘सुनो!’ ‘ध्यान दो!’ हालाँकि कभी किसी ने उन्हें यह नहीं बताया है कि किस प्रकार ध्यान देना चाहिए। उन्हें जबरन ध्यान देना पड़ता है जो उनके लिए बड़ा कष्टकर होता है, क्योंकि इससे उनके शरीर में तनाव आ जाता है और शिक्षक की बातों पर ध्यान देने के बदले वे अपने आप में ही सिमट जाते हैं। हमें किसी प्रकार उन्हें यह सिखाना होगा कि वे अपने कान और मस्तिष्क किस प्रकार खोलें, और इसके लिए निश्चित रूप से शांत रहना होगा। हम शिक्षकों के लिए एक बड़ी समस्या यह है कि बच्चों के लिए बिना हिले-डुले रहना बहुत कठिन है। यदि हम यह चाहते हैं कि वे सीखें, तो हमें किसी प्रकार उन्हें शांत रखना होगा, लेकिन बिना तनाव के। जब शिक्षक कक्षा में होता है तो वह निरंतर देखता रहता है कि कक्षा में क्या हो रहा है – एक बच्चा पाठ नहीं सुन रहा है, दूसरा हलचल कर रहा है, इत्यादि, और फिर वह स्वयं तनावयुक्त हो जाता है। वह तनावरहित नहीं हो पाता है क्योंकि उसे हमेशा सतर्क रहना पड़ता है।शिक्षक को बहुत अधिक बोलना पड़ता है, और बोलना एक क्रिया है, केवल समय काटना नहीं है। जब आप लंबे समय तक बोलते हैं तो आपका मुँह सूखता है, आपको एकाग्र रहते हुए इस तरह बोलना होता है कि हर बच्चा आपको सुन सके। कुछ शिक्षक अपनी आवाज़ को कभी परिमार्जित करना नहीं सीख पाते हैं। यह एक कला है। बोलने के क्रम में शिक्षकों की अत्यधिक ऊर्जा क्षीण होती है, यह उनकी थकान और उससे उत्पन्न होने वाले अवसाद का एक अन्य कारण है। लेकिन यदि आप प्रतिदिन कम-से-कम चौबीस बार सस्वर ॐ मंत्र का उच्चारण करते हैं तो आपकी आवाज़ स्वतः परिमार्जित होती जायेगी। आप पायेंगे कि बेहतर आवाज़ के साथ कम ऊर्जा व्यय करे घंटों बोल सकते है।
*योग के उपयोगी होने का अन्य कारण यह भी है कि योग बच्चों के स्वभाव को अच्छी तरह समझने में शिक्षकों की मदद करता है।* योग ने हमें सिखाया है कि शरीर और मन एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं, लेकिन हम अपने पेशे में छात्रों को केवल ‘मन’ मानते हैं। यह इस बात से भी प्रदर्शित होता है कि जब बच्चों को बैठाया जाता है तो उनके शरीर का केवल ऊपरी भाग दिखाई देता है- हम शेष भाग के विषय में बिल्कुल नहीं सोचते हैं। बच्चा मानो दो भागों में विभक्त हो जाता है- ऊपरी भाग में प्रतिक्रिया होनी चाहिए, निचला भाग अस्तित्व विहीन रहे। हम लोग बच्चों के मस्तिष्क को पोषित और परिष्कृत करने के लिए भी कुछ नहीं करते हैं। मस्तिष्क बुद्धि का अमूर्त उपकरण मात्र नहीं है, बल्कि एक शारीरिक अवयव है, इसलिए ताज़े, ऑक्सीजनयुक्त रक्त से इसका सिंचन होते रहना परम आवश्यक है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शरीर के अन्य भागों की अपेक्षा मस्तिष्क को सबसे अधिक रक्त की आवश्यकता होती है। लेकिन बच्चों लगभग पूरे समय बैठाये रखा जाता है, तो मस्तिष्क का अच्छी तरह सिंचन किस प्रकार हो?
*संपूर्ण व्यक्तित्व का समन्वयन -* शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन के विषय में बहुत बातें हो रही हैं योग इस परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। वस्तुतः योग में हम मानते हैं कि बच्चे के एक से अधिक ‘शरीर’ होते हैं, और इन ‘शरीरों’ में समन्वय होना चाहिए। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है किसी बच्चे ने बहुत अधिक चॉकलेट खा लिया है और उसे अगले दिन गणित की कक्षा में जाना है। वह जाना भी चाहता है क्योंकि वह उस शिक्षक को पसंद करता है। पसंद करे भी क्यों नहीं, आखिर वह शिक्षक है ही बहुत अच्छा। और उसे गणित अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि उसके माता-पिता ने कहा है कि बिना गणित पढ़े उसे अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी। इसलिए वह पाठ सुनना चाहता है, लेकिन ‘बहुत अधिक चॉकलेट खा लिया।’ यह ऐसी समस्या है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यदि शरीर और बुद्धि के बीच सामंजस्य नहीं रहेगा तो समस्या खड़ी होगी ही। दूसरा उदाहरण ऐसे बच्चे का है जो शारीरिक शिक्षा की कक्षा में दौड़ता भागता रहा है। उसके बाद वह अंग्रेज़ी या गणित की कक्षा में जाता है। वह अभी भी हाँफ रहा है। इस बीच वह कक्षा की बहुत सी बातें नहीं सुन पायेगा। वह उखड़ी हुई श्वास के कारण एकाग्र नहीं हो पायेगा। इसलिए उसकी श्वास को सामान्य बनाना होगा ताकि वह पाठ को सुन सके और एकाग्र हो पाये। एक उदाहरण मानसिक शरीर से जुड़ा हुआ है। एक बच्चे ने विगत संध्या को एक फुटबॉल मैच देखा, या ड्रैक्युला का भयावह चलचित्र देखा है। अगले दिन कक्षा में उसे यह सब याद आता है। उसकी मानसिक ऊर्जा कहीं और व्यस्त है। जब शिक्षक किसी विषय की व्याख्या कर रहे हैं या कोई प्रश्न पूछ रहे हैं तो बच्चा अनमना-सा होता है। कुछ लोगों को बड़े होने पर भी स्कूल के दिनों में देखे गये दिवास्वप्न याद रह जाते हैं। अंतिम उदाहरण उन बच्चों का है जिनकी समस्यायें पारिवारिक होती हैं। ये घरेलु समस्यायें उनकी याद करने की क्षमता पर कुप्रभाव डालती हैं। यदि मन में विद्यमान प्रगति करने और सीखने की तीव्र अभीप्सा पर तनाव का आवरण पड़ जाता है, और शिक्षक के द्वारा उस पर ध्यान नहीं दिया जाता है, तो ऐसे में बच्चा एकाग्र नहीं हो पाता है। योग के अभ्यास ऐसी समस्याओं का सामना करने में मदद करते हैं। इसीलिए हम प्रायः कक्षा को लघु श्वसन अभ्यासों से आरंभ करते हैं। यह उतना आसान नहीं है जितना दिखता है। वास्तव में प्राणायाम की आवश्यकता कक्षा के आरंभ में नहीं बल्कि इसके बीच में हैं। शिक्षक का ध्यान हमेशा अपने छात्रों पर होना चाहिए। शिक्षक को देखना चाहिए कि यदि बच्चे थक गये हैं या ऊब रहे हैं, तो उनसे कुछ दूसरी तरह का काम करवाना चाहिए। पूरी कक्षा को विविध गतिविधियों में बाँट देना चाहिए। बच्चों को उछल-कूद और विविधता पसंद है, और वे एक ही तरह के काम को बार-बार दुहराना नहीं चाहते हैं। एक शिक्षक तब असफल माना जाता है, जब वह कक्षा की नीरसता दूर करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग नहीं करता है। बच्चे विविधता के साथ मनोरंजन भी चाहते हैं। यदि वे ऊबने लगते हैं तो अपनी ऊब को बिल्कुल प्रकट कर देते हैं। इसलिए एक सामान्य कक्षा के लिए तरह-तरह के क्रियाकलापों की कल्पना करना और उन्हें मूर्तरूप देना शिक्षक के कार्य का एक अंग हो |
*योग की दृष्टि से शिक्षा* – बच्चों को योग सिखाने वाले शिक्षक को बच्चों सामने ऐसे पेश आना चाहिए जैसे एक संगीतज्ञ अपने पियानो के सामने बैठता है। पियानोवादक के सामने काले-सफेद अनेक बटन होते हैं, वैसे ही शिक्षक के सामने अलग-अलग स्वभाव वाले अनेक बच्चे होते हैं। उसे परिस्थिति के अनुसार, समय के अनुसार, अवस्था-समूह के अनुसार अपनी ‘धुन’ बजानी चाहिए। उसके पास अनेक प्रकार के संगीत तैयार रहने चाहिए। उदाहरण के लिए, किंडरगार्टेन के बच्चों से वही अभ्यास नहीं कराये जायेंगे जो पंद्रह वर्ष की अवस्था के किशोरों से कराये जायेंगे।
एक शिक्षक को योग के सिद्धांतों के साथ बच्चों के स्वभाव को भी समझना चाहिए। उसे यह बात स्पष्ट रूप से मालूम होनी चाहिए कि शिक्षा का परिणाम क्या होने वाला है। योग और शिक्षा के बीच बड़ा गहरा संबंध है। योगियों ने निश्चयपूर्वक कहा है कि मानव अब तक पूर्णरूपेण मानव नहीं बन पाया है, वह अभी भी एक उच्चतर श्रेणी का पशु है, लेकिन योग के माध्यम से वह सचमुच मानव बन सकता है और विकास कर सकता है।
अंतत: शिक्षक के अपने विकास की अवस्था सबसे महत्त्वपूर्ण है, और आप सबसे पहले इसका ध्यान रखेंगे। कक्षा में कोई परिवर्तन ..लाने का प्रयास करने के पूर्व शिक्षक को आत्मानुशासन के द्वारा अपने जीवन को परिवर्तित करने का प्रयास करना चाहिए। उसकी परिवर्तित परिष्कृत दृष्टि ही शिक्षा प्रणाली को तरोताजा कर पायेगी।