क्या ओमिक्रॉन की दस्तक एक मनोवैज्ञानिक चुनौती है : शिल्पी कलवानी
हाल ही में कोरोना वायरस के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन की खूब चर्चा की जा रही है। दक्षिण अफ्रीका में पाए गए इस वैरिएंट को विश्व स्वास्थय संगठन (WHO) ने वैरिएंट ऑफ़ कंसर्न का नाम दिया है। इसे यह नाम दिए जाने का मुख्य कारण इसकी तेजी से फैलने की क्षमता के साथ इसमें भारी संख्या में म्यूटेशन भी बताया गया है। कोरोना को भारत में आये हुए लगभग दो वर्ष होने आए है। ऐसे में कोरोना शारीरिक स्वास्थ्य से ज्यादा अब मानसिक स्वास्थ्य के लिए चुनौतीपूर्ण होता दिखाई दे रहा है। विश्व स्वास्थय संगठन (WHO) के आंकड़ों के आधार पर विश्व के 14% रोगों का भार मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधित रोग उठाते है। भारत की बात की जाए तो मानसिक स्वास्थय के प्रति जागरूकता अभी अभी थोड़ी समझ में आयी ही थी कि कोरोना काल शुरू हो गया। क्या ओमिक्रॉन का भारत आना सिर्फ शारीरिक इम्युनिटी को एक चुनौती है ?
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार कोविड-19 से ग्रस्त 5.8 फीसदी मरीजों में 14 से 90 दिनों में पहली बार मानसिक विकार के लक्षण पाए गए थे| जबकि इन्फ्लुएंजा के 2.8, सांस से जुड़े संक्रमण के 3.4, त्वचा के संक्रमण से ग्रस्त 3.3, पित्त की पथरी से ग्रस्त 3.2 और फ्रैक्चर से ग्रस्त 2.5 फीसदी मरीजों में किसी मानसिक रोग के लक्षण पहली बार देखे गए थे| यह शोध प्रतिष्ठित जर्नल लैंसेट साइकेट्री में प्रकाशित हुआ है | इस शोध में अमेरिका के स्वास्थ्य सम्बन्धी 6.9 करोड़ इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड का विश्लेषण किया गया है, जिसमें से 62,000 से अधिक मामले कोविड-19 से जुड़े थे| दुनिया भर में कोविड-19 के चलते बड़ी संख्या में लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ा है| इसके साथ ही लोगों का मानना है कि यह बीमारी मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डाल रही है| गौरतलब है कि दुनिया भर में 5 करोड़ से ज्यादा लोग इस वायरस की चपेट में आ चुके हैं। यह वायरस कितना गंभीर रूप ले चुका है इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह दुनिया के 216 देशों में फैल चुका है और लोगों की जीवनशैली को इस वायरस ने बुरी तरह प्रभावित किया है।
इस अध्ययन को विस्तार से समझने की आवश्यकता है कि कोरोना वायरस के इलाज के 90 दिनों के भीतर करीब 18.1 फीसदी मरीज किसी न किसी मानसिक विकार से ग्रस्त पाए गए थे| शोध के अनुसार कोरोनावायरस से ग्रस्त लोगों में कई तरह के मनोविकारों जैसे अनिद्रा, चिंता या अवसाद का खतरा कहीं अधिक रहता है| साथ ही अध्ययन के अनुसार इन रोगियों में आगे चलकर मनोभ्रंश का खतरा कहीं अधिक बढ़ जाता है| मनोभ्रंश (मानसिक विपथन) एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें मस्तिष्क दुर्बल हो जाता है, और पागलपन की स्थिति बन सकती है|
इतना सब कुछ जानकर बस यही सवाल उठता है कि अब आगे क्या? मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करने के लिए भारत में कई तरह की चर्चाएं हुई है तथा सुझाव दिए गए है पर क्या हमारे पास इससे लड़ने के लिए उपयुक्त हथियार है ? भारत में बढ़ते अवसाद व मानसिक रोगों के बीच हमारे पास केवल 9000 प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक है। भारत सरकार द्वारा चलायी जाने वाली सुसाइड प्रिवेंशन हेल्पलाइन में आने वाली कॉल्स की संख्या मौजूदा एक्सपर्ट्स की संख्या से कई गुना अधिक है ऐसे में इस स्थिति को समझकर स्वीकारना ही सबसे बेहतर विकल्प है। अगर हम ये समझ ले कि ऐसे समय में अपना तथा अपने आस पास के 4 लोगों के मानसिक स्वास्थ्य का जिम्मा हम खुद उठा सकते है तो आपदा के इस समय में ऐसे कई वालंटियर्स सामने आ सकते है पर क्या हम इस जिम्मेदारी के लिए उतने प्रशिक्षित है?
कई विकसित राष्ट्रों ने अपने देश के छात्रों के लिए स्कूल तथा यूनिवर्सिटी में मेन्टल हेल्थ फर्स्ट ऐड अनिवार्य कर दिया है। मानसिक स्वास्थ्य एक संवेदनशील विषय है। ऐसे में अगर हर एक व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के मानसिक स्वास्थय का जिम्मा लेना चाहता है तो उसे कम से कम एक मेन्टल हेल्थ फर्स्ट ऐडर जितनी आवश्यक जानकारी प्राप्त होनी ही चाहिए। किसी भी देश की प्रगतिशीलता का आंकलन उसके जीडीपी के आकड़ो से नहीं बल्कि आपदा के पूर्व उसके प्रबंधन के लिए की गयी तैयारी से होता है। ऐसे में इस बात को समझ लेना बेहतर है कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं कोरोना काल की समाप्ति के साथ एक नया मोड़ लेकर आएँगी। ऐसे में हर स्कूल तथा यूनिवर्सिटी में मेन्टल हेल्थ फर्स्ट ऐड का प्रारंभिक ज्ञान दिया जाना अति आवश्यक है। जिस तरह पाठ्यक्रम में डिजास्टर मैनेजमेंट जैसे विषयों को अनिवार्य मानकर एक लाइफ स्किल के तौर पर सिखाया जाता है। ठीक उसी तरह इस कोरोना काल में कुछ विषयों का आपातकालीन सिखाया जाना अतिआवश्यक है। भारत में इस तरह के विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल करने से मानसिक रोगों के प्रति नज़रिये का बदलाव लाया जा सकता है। भारत की अधिकतम आबादी अभी भी मानसिक रोगों के विषय में बात करने से कतराती है तथा मनोवैज्ञानिक से परामर्श (काउंसलिंग) लेना उपयुक्त नहीं मानते। भारत में अवसाद (डिप्रेशन) के बढ़ते मॉमले चिंता का विषय है | पर यह चिंता केवल बढ़ती संख्याओं की नहीं बल्कि गहराते प्रभाव की है | अवसाद ग्रसित लोगों की संख्या के बढ़ने का एक कारण साधनों की कमी हो सकता है | परंतु अवसाद के गहराते प्रभाव का एक मूल कारण हमारी संकीर्ण मानसिकता तथा इस विषय में जागरूकता की कमी है | मानसिक रोग की चर्चा होते ही हम इतना असहज महसूस करते है कि हम किसी से खुलकर इस बारें में बात नहीं करना चाहते | ना ही हम इसके बारे में सही जानकारी हासिल करना चाहते है और ना ही उसे दूसरों तक पहुँचाना चाहते है | जितना सहज हम बुखार या सरदर्द होने पर डॉक्टर की सलाह पर दवाइयाँ लेने पर महसूस करते है, उतना ही असहज हम मानसिक रोगों के बारे में बात करने पर महसूस करते है | यह लड़ाई रोग से कहीं अधिक रोग के प्रति फैले भ्रम व नकारात्मकता से है।
आपदा से लड़ने के लिए हमेशा सभी साधन उपलब्ध हो ऐसा जरुरी नहीं है। कई बार इस बात से हैरानी होती है कि जहाँ बड़े बड़े विकसित राष्ट्र की स्ट्रेटेजी फेल हुई वहीं तेलंगना के एक छोटे से गांव बसवापुर ने अपने समुदाय के सहयोग से शून्य कोरोना केसेस दर्ज किए। 1200 की आबादी वाले इस गाँव में 375 घर है और पूरे गाँव में सैनीटाईज़ेशन के महत्व पर कई सारे वालंटियर्स ने जागरूकता फ़ैलाने का काम किया है। मई 2021 में जब लोग वैक्सीन को स्वीकारने की प्रक्रिया से जूझ रहे थे। तब इस गाँव में 45 की उम्र पार चुके लगभग 300 लोग वैक्सीनेटेड थे। इस गांव की आपदा से लड़ने की तैयारी व समुदाय के सहयोग से पूरा देश प्रेरणा ले सकता है। हर बार साधनो की कमी का बहाना उपयुक्त नहीं है कभी कभी सही दिशा में की गयी छोटी छोटी कोशिशें भी रंग लाती हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या महामारी के ग्राफ को सपाट करते करते हम मानसिक स्वास्थ्य को अनदेखा कर गए है? क्या मानसिक विकार के पहले चरण का जन्म हो चुका है? आंकड़े और ग्राफ शायद वक़्त ही बताएगा पर भारत का वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के डिप्रेशन ग्रसित देशों की कतार में होना इस गुथ्थी को एक भयानक रूप देता है| तो क्या यह जंग का अंत है या किसी नए युद्ध का बिगुल?