May 11, 2024

परमार्थ साधना का एकमात्र उपाय है योगविद्या : प्रो. हरिशंकर उपाध्‍याय

वर्धा. महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली एवं विश्‍वविद्यालय के दर्शन एवं संस्‍कृति विभाग के संयुक्‍त तत्‍वावधान में आयोजित ‘योगदर्शन की समव्‍यवहारी प्रयोजनीयता’ विषय योग सप्‍ताह के संपूर्ति सत्र में बतौर मुख्‍य वक्‍ता इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय प्रयागराज के दर्शनशास्‍त्र विभाग के पूर्व अध्‍यक्ष एवं आईसीपीआर की कार्यकारिणी के सदस्‍य तथा दर्शनशास्‍त्र के अध्‍येता प्रो. हरिशंकर उपाध्‍याय ने कहा है कि भारतीय आस्तिक और नास्तिक दर्शन की परंपरा में योग परमार्थ साधना का एकमात्र उपाय है। अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस, 21 जून से 27 जून तक योग सप्‍ताह का आयोजन किया गया जिसका संपूर्ति सत्र रविवार को विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल की अध्‍यक्षता में आयोजित किया गया।

प्रो. उपाध्‍याय ने योग की अवधारणा और उसकी ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि को स्‍पष्‍ट करते हुए अपने सारगर्भित व्‍याख्‍यान में कहा कि योग की मूल अवधारणा अनासक्ति की है। गांधी जी ने अनासक्ति योग को अहिंसा दर्शन माना है। अहिंसा का तात्‍पर्य आत्‍मशुद्धि यानि मन और शरीर का निर्विकार होना है। उन्‍होंने महाभारत और गीता का संदर्भ देते हुए इसे योग से जोड़कर व्‍याख्‍यायीत किया। जर्मन के सुविख्‍यात दार्शनिक कांट का उल्‍लेख करते हुए उन्‍होंने बताया कि कांट ने कर्म का निरुपण कर भावनावश और कृतज्ञतावश किये गये कर्म की चर्चा की परंतु कांट ने इन्‍हें नैतिक नहीं माना। शुभसंकलपपूर्वक और पवित्र संकल्‍प के साथ गये कर्म को उन्‍होंने योग्‍य माना। उन्‍होंने कहा कि कर्म को करते हुए आनंद की अनुभूति आवश्‍यक है। प्रो. उपाध्‍याय ने कहा कि योगविद्या की जितनी भी साधनाएं चाहे वह वेदांत, बौद्ध और जैन दर्शन की हो उनका विलय अंत में योगविद्या में ही होता है। योगविद्या हमारी पहचान और अस्मिता है। वर्तमान समय में योग की अंतरराष्‍ट्रीय पहचान को भी उन्‍होंने रेखांकित किया।

इस अवसर पर नव नालंदा महाविहार विश्‍वविद्यालय नालंदा के दर्शनशास्‍त्र विभाग के प्रो. सुशिम दुबे ने कहा कि योग भारत की विरासत है। संयुक्‍त राष्‍ट्र की घोषणा से योग को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर पहचान मिली है। कोरोना की इस त्रासदी में हम सभी को योग का जागरण करने की आवश्‍यकता है। सबकी समवेत सुरक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य के लिए योग की महत्‍ता को संपूर्ण विश्‍व ने अनुभव किया है। स्‍थैर्य और धैर्य का संबल प्राणायाम ने प्रदान किया है। प्रो.दुबे ने कहा कि योग का संदेश न केवल चरित्र के लिए बल्कि मानवता के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए भी प्रभावी है। उन्‍होंने महर्षि पतंजलि द्वारा परिभाषित आसनों एवं प्राणायाम की चर्चा करते हुए योग को प्राणविद्या की संज्ञा दी। भारत के सांस्‍कृतिक प्रतिमानों में योग-ध्‍यान की मुद्राएं शांति और सौहार्द का संदेश देती है। राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति में और आयुष के माध्‍यम से चिकित्‍सा प्रयोग में भी योग को प्राथमिकता एवं व्‍यापकता प्रदान की है।

कार्यक्रम की अध्‍यक्षता करते विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रो.रजनीश कुमार शुक्‍ल ने कहा कि चिंतन परंपरा की भारत की आगम एवं निगम परंपराओं में योग का विशिष्‍ट स्‍थान है। समग्रता पर योग की चर्चा हो इसे लेकर यह आयोजन महत्‍वपूर्ण है। पतं‍जलि का योग सूत्र सामान्‍यजन के लिए मानक प्रक्रिया है। प्रो. शुक्‍ल ने कहा कि भारत के स्‍वतंत्रता आंदोलन के साथ योग का गहरा संबंध है। स्‍वतंत्रता के महानायक योग पर बल देते थे और गांधी ने तो एक आदर्श जीवन के लिए योग को अपने जीवन का हिस्‍सा बनाया था। योग एक विलगाव कर उसे जोडने की प्रक्रिया है। भारतीय जीवन पद्धति में योग जीवन का हिस्‍सा है। योग ज्ञान और विवेक प्राप्‍ति का प्रभावी साधन है। उन्‍होंने कहा कि प्राणायाम, प्रत्‍याहार, ध्‍यान-धारणा भारत की दैनिक जीवन प्रणाली का हिस्‍सा रही हैं। विश्‍वविद्यालय के स्‍तर पर योग को आसन से आगे बढ़कर देखा जाना चाहिए। भारत की कोई भी दार्शनिक परंपरा योग मुक्‍त नहीं है। प्रो. शुक्‍ल ने गीता में प्रयुक्‍त सात्विक, राजसिक और तामसिक कर्म की चर्चा करते हुए कहा कि सात्विक कर्म मनुष्‍य की भौतिक बिमारियों के मुक्ति मिल सकती है।

कार्यक्रम का स्‍वागत वक्‍तव्‍य संस्‍कृति विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. नृपेंद्र प्रसाद मोदी ने दिया। संचालन दर्शन एवं संस्‍कृति विभाग के अध्‍यक्ष डॉ. जयंत उपाध्‍याय ने किया। संपूर्ण योग सप्‍ताह के कार्यक्रमों का विवरण साहित्‍य विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. अवधेश कुमार ने किया तथा दर्शन एवं संस्‍कृति विद्यापीठ के सहायक प्रोफेसर डॉ. सूर्य प्रकाश पाण्‍डेय ने किया। कार्यक्रम में अध्‍यापक, शोधार्थी तथा विद्यार्थी बड़ी संख्या में सहभागी हुए।

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