May 3, 2024

राष्ट्रीय बालिका दिवस – योग के अभ्यास किशोरी की भावनाओं में स्थिरता लाने और आत्म-विश्वास उत्पन्न करने में सहायक : योग गुरु महेश अग्रवाल

भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र  स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि हर साल 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस  मनाया जाता है। इसका मुख्य मकसद लोगों को बेटियों के प्रति सम्मान और स्नेह के लिए जागरुक करना है। यह दिन बेटियों को समर्पित होता है। मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः  भावार्थ यह है कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां, देवता वास करते हैं।
योग गुरु अग्रवाल ने कहा कि यह सृष्टि विविध लयात्मक गतियों पर नर्तन-गायन करती रहती है। या यूँ कहें कि प्रकृति से सम्बन्धित प्रत्येक घटना किसी नियम से बँधी होती है – पर्वतों का दीर्घ और मन्द क्षरण, ऋतुओं का नियमित परिवर्तन, दिवा-रात्रि प्रत्यावर्तन, सूर्य का घूर्णन, चन्द्रमा का प्रवर्तन निवर्तन। स्त्री शरीर धारण करना विशेष रूप से ब्रह्माण्ड के प्रवाह का सहभागी होना है। स्त्री की जागरूकता सतत् उसकी प्राकृतिक प्रजनन शक्ति की ओर निर्दिष्ट होती है जो उसके ऋतुस्राव के चक्र के रूप में परिलक्षित होती है। जागरूकता की यह उत्थित अवस्था अनन्त के साथ हमारे सम्बन्धों का मौन समादर है जिसे शरीर के प्रति हमारे विकृत पूर्वाग्रहों द्वारा विनष्ट नहीं होने दिया जाना चाहिए। ऐसी अनेक स्त्रियाँ हैं जो अपनी चेतना को शरीर से बाँध देती हैं। वे चेतन या अचेतन रूप से स्वयं को सदा रूग्ण समझती हैं; अपने चक्र में होने वाले नगण्य परिवर्तन से भी व्यग्र हो उठती हैं, किंचित पीड़ा से ही, भले ही वह वास्तविक हो या काल्पनिक, चिन्तित और क्षुब्ध हो जाती हैं। अपने शरीर के प्रति एक चौकसी की मनोवृत्ति स्वास्थ्य की कुंजी है, किन्तु यह समुचित ज्ञान एवं आत्म-विश्वास पर आधारित होनी चाहिये। हमारा भौतिक शरीर प्रकृति की उत्कृष्ट रचना है जो आश्चर्यजनक ढंग से सशक्त एवं कुशलतापूर्वक समेकित है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी बिना हमारे हस्तक्षेप के यह सुव्यवस्थित रूप से क्रियाशील रहता है। मानव शरीर एक आत्म-नियन्त्रित यन्त्र के समान है जो अपनी आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुसार स्वयं को समंजित करता जाता है।
रूढ़िवादी समाजों में बालिकाओं को अति सुरक्षित रखा जाता है और बालकों से उनका मिलना-जुलना, यहाँ तक कि बातें करना भी निषिद्ध रहता है, जिसके फलस्वरूप उनके अन्दर अवांछित रूप अस्वाभाविक भय उत्पन्न हो जाता है जो उन्हें लोगों से अधिक से अधिक दूर करता जाता है। किशोरावस्था (वय: सन्धि काल) में ही बालिका को पत्नी और मातृत्व की भूमिका के लिए तैयार होना पड़ता है, इससे उसमें मानसिक दबाव उत्पन्न हो जाता है। साथ ही वह पाती है कि उसके बचपन की स्वतन्त्रता उससे छिनने वाली है। एक बालिका के रूप में उसके जिस व्यवहार को उचित माना जाता था, एक युवती के रूप में उसे अनुपयुक्त माना जाने लगा है। अब उससे अधिक मर्यादित आचरण की अपेक्षा रखी जाने लगी है। इस अवस्था में बालिकाएँ समाज में अपने स्त्रीत्व की छवि के विभिन्न पक्षों – माधुर्य, स्नेह, संकोच और सबसे अधिक सौन्दर्य के प्रति सजग हो जाती हैं। अधिकतर बालिकाएँ इस आदर्श को स्वीकार कर स्वयं को उसके अनुरूप ढालने का प्रयास करती हैं। किन्तु ऐसा नहीं होने पर वे व्यथित भी हो जाती हैं। किशोरावस्था में बालिकाओं का अपने रूप-रंग और साज-सज्जा पर विशेष रूप से समय व्यतीत होने लगता है, और वे अपनी भ्रमित भावनाओं में भी उलझी रहने लगती हैं।
यह ऐसी अवस्था है जब एक बालिका को अपनी उभयमुखी इच्छाओं में से एक का चुनाव कर लेना चाहिए और साथ-ही स्वयं को संयत कर अपने अन्दर ऐसी क्षमताओं का विकास करना चाहिए जिससे वह वयस्क समाज की एक उपयोगी सदस्या बन सके। किन्तु प्रायः ऐसा देखा गया है कि हँसमुख रहने वाली नन्ही बालिका विभिन्न स्तरों पर भ्रमित होकर चिड़चिड़ी, नाराज, अवज्ञाकारी या रुष्ट रहने लगती है। अन्ततः उसका व्यवहार या तो असामाजिक हो जाता है या आत्मघातक। उसके बचपन में यदि उसे कोई समस्या रही होती है तो अब वह अधिक जटिल होकर उसमें अवसाद एवं द्वन्द्व उत्पन्न कर देती है जो विभिन्न रूपों में प्रकट होने लगता है, जैसे – चिड़चिड़ापन, दुःस्वप्न, बिस्तर गीला करना, व्यर्थ खिलखिलाना, नाखून चबाना, झूठ बोलना, शर्माना, चिन्तामग्न रहना, संवेदनशील हो जाना या रोना। कभी-कभी बालिका का व्यवहार इन कारणों से इतना अधिक प्रभावित हो जाता है कि उसके परिवार वाले उसे मानसिक रूप से असन्तुलित समझने लगते हैं। प्रायः बालिका के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य उसकी इस स्थिति को समझ नहीं पाते, क्योंकि वे स्वयं उसके शरीर और मन में हो रहे परिवर्तनों के बीच के सम्बन्धों से अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसी  दशा में उस अवसन्न युवती को या तो किसी मनोचिकित्सक के पास ले जाया जाता है या किसी चिकित्सालय (मानसिक अस्पताल) में भर्ती कर दिया जाता है जहाँ विभिन्न दवाओं से उसके उस असामान्य लक्षणों को दबा है दिया जाता है, किन्तु इससे उसकी व्यथा अथवा अन्तर्द्वन्द्व में सुधार नहीं हो पाता है। भारत में ऐसी स्थिति में पूजा या झाँड़-फूँक करवाते हैं जो बेकार साबित होते हैं। यद्यपि प्रत्येक बालिका की स्थिति न तो इतनी भयावह होती है और न असहाय, फिर भी अधिकतर बालिकाओं को कई वर्षों तक अनुभवों के उतार-चढ़ाव से गुजरना पड़ता है। इस अवस्था में किसी भी अनुभूति की तीव्रता बद से बदतर प्रतीत होती है।
किशोरी पुत्रियों की माताओं के लिए यह एक कठिन समय होता है। यद्यपि पिता भी ऐसे समय में उसके लिए बहुत कुछ कर सकते हैं, फिर भी एक बालिका प्रायः अपनी माता से ही सहायता की अपेक्षा रखती है। यह एक ऐसा कठिन समय होता है जब बालिका को अपने माता-पिता, दोनों की पूरी सहायता की आवश्यकता होती है। इसके लिए स्वयं को थोड़ा तटस्थ रखते हुए पुत्री को स्वानुभव से सीखने और करने देने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। साथ ही उसके क्रिया-कलापों पर अपनी सतर्क दृष्टि भी रखनी चाहिए। इस अवस्था में यदि पुत्री को योग की ओर उन्मुख किया जाए तो यह माता द्वारा दिया गया एक अनमोल उपहार होगा, क्योंकि इससे उत्पन्न साहस एवं आशावादिता के साथ वह अपने अनन्य गन्तव्य की ओर अग्रसर होगी।
जबकि एक बालिका के जीवन में अन्य पक्ष उसके सम्मुख प्रस्फुटित हो रहे हों और नयी सम्भावनाएँ उसकी प्रतीक्षा में हों तो ऐसे में एक संवेदनशील माता का यह कर्तव्य है कि वह अपनी पुत्री के विवेक के सम्पोषण के लिए योग से उसका परिचय कराये। योग के अभ्यास आंगिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित एवं हॉर्मोनों को सन्तुलित करते हुए सम्पूर्ण शारीरिक संरचना को लाभान्वित करते हैं। आसनों में विशेषतः सूर्यनमस्कार ऋतुस्राव को नियमित, शरीर के वजन को नियन्त्रित, त्वचा के रंग को साफ रखता है और साथ ही आन्तरिक आक्रामक ऊर्जा को मुक्त करता है। प्राणायाम और जप के द्वारा तनाव से मुक्ति मिलती है, भावनाएँ शान्त हो जाती हैं तथा विकृति की सीमा तक उत्पन्न हुए संकोच को दूर करने के लिए सकारात्मक आत्म-सजगता के विकास में सहायता मिलती है। योग  के अभ्यास एक किशोरी की भावनाओं में स्थिरता लाने और आत्म-विश्वास उत्पन्न करने में सहायक होते हैं जिससे उसका एक सधा सन्तुलित व्यक्तित्व निखर उठता है, जो अन्यथा सम्भव नहीं हो पाता। महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि योग के अभ्यास बच्चों के उन विशेष सम्पर्क सूत्रों की रक्षा करते हैं जिनके द्वारा बच्चे अपने आन्तरिक जीवन के साथ सजग रूप से युक्त रहते हैं। वयस्क होने की प्रक्रिया में भी उनकी यह सजगता नष्ट नहीं होकर परिपक्व आध्यात्मिकता में रूपान्तरित हो जाती है।

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