May 8, 2024

विजयादशमी पर्व – योग मनुष्य की विचार प्रक्रिया को प्रकाश देगा : योग गुरु महेश अग्रवाल

भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में हर साल आश्विन मास की दशमी तिथि को दशहरा का पर्व मनाया जाता है। विजयादशमी का यह पर्व अच्छाई की बुराई पर, सत्य की असत्य पर विजय का प्रतीक है । यह त्योहार हमें संदेश देता है कि बुरा व्यक्ति चाहे कितना ही बलवान व प्रभावशाली क्यों न हो उसका अंत सुनिश्चित है । मृत्यु पर भी विजय पाने वाले रावण का अंत कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अधर्म पर धर्म की विजय दिलाई । योग गुरु अग्रवाल ने कहा कि योगविद्या भारतवर्ष की सबसे प्राचीन संस्कृति और जीवन पद्धति है तथा इसी विद्या के बल पर भारतवासी प्राचीनकाल में सुखी, समृद्ध और स्वस्थ जीवन बिताते थे। पूजा-पाठ, धर्म-कर्म से शान्ति मिलती है और योगाभ्यास से धन धान्य, समृद्धि और स्वास्थ्य। भारत में सुख, समृद्धि, शक्ति और स्वास्थ्य के लिए हर व्यक्ति को योगाभ्यास करना चाहिए।
योग मनुष्य की विचार प्रक्रिया को प्रकाश देगा और उसके विचारों और ज्ञान की गुणवत्ता को सुधारेगा। फलतः योग मनुष्य को उसकी समस्याओं की अनिवार्यता को समझने की शक्ति देगा और इसी की हम आशा कर रहे हैं। योग अगर शक्तिशाली विश्व संस्कृति बन जायेगा तो क्या हम मनुष्य के दुःखों और दुनिया की बुराइयों का अंत होने की आशा कर सकते हैं? योग  महान् शक्ति बनने जा रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्य बीमार नहीं पड़ेगा या स्पर्धा नहीं होगी और हर कोई एक-दूसरे से प्रेम ही करने लगेगा। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि दुनिया में घृणा नहीं रहेगी और हर आदमी सुखी हो जायेगा अथवा समस्याओं व रोगों से वह मुक्त ही हो जायेगा। ऋषि-मुनियों के अनुसार यह बिल्कुल स्पष्ट है कि संसार त्रिगुणों की लीला-भूमि है, तीन गुणों का खेल मात्र है। ये तीन गुण हैं-तमस्, रजस और सत्त्व | अगर इन विभिन्न गुणों को एक साथ मिला दें, तो वे मानसिक स्तर पर लाखों पदार्थों की सृष्टि कर देते हैं। योग एक शक्तिशाली संस्कृति बने, लेकिन वे त्रिगुणात्मक पदार्थ विद्यमान रहेंगे, वे सदा एक से रहेंगे। संसार का  स्वभाव ही विभिन्नता, विरोधाभास या विविधता का है। योग भी इस नियम के विपरीत नहीं जा सकता। समाज में परस्पर विरोधी धर्म और सम्प्रदाय रहेंगे ही। युद्ध भी होंगे, प्रेम भी होगा, घृणा भी रहेगी और जनसंहार भी होंगे। राम, कृष्ण, बुद्ध और ईसामसीह जैसे लोग भी समय-समय पर आते रहेंगे। इन सबसे परे तुम जा नहीं सकते, क्योंकि यह सृष्टि त्रिगुणों की लीला-स्थली है। तुम एक आदर्शवादी जीवन पद्धति, विश्व शान्ति या विश्व एकता का काल्पनिक मानसिक चित्र बना सकते हो, मगर यह होगा कैसे? यह संभव है ही नहीं। घास हमेशा रहेगी ही, कंटीली झाड़ियाँ होंगी ही, सर्प इत्यादि प्राणी भी होंगे। अति वृष्टि से बाढ़, अनावृष्टि से सूखा और अन्य संक्रामक से रोग होंगे ही, भले ही उच्च रक्तचाप, कैंसर और गठिया रोग समाप्त हो जायें। हाँ, एक बात याद रखना। योग की शक्ति से एक महान् परिवर्तन अवश्य आयेगा।
योग गुरु अग्रवाल ने इस अवसर पर विशेष बताया कि योग का भविष्य अत्यन्त महान् और दिव्य है। आगामी वर्षो में योग समाज के उत्थान में सर्वप्रमुख भूमिका निभायेगा। कभी लोगों ने सोचा था कि धर्म सभी आवश्यक अच्छाइयाँ देगा, वांछित जरूरतों को पूरा करेगा, लेकिन वह महज एक भ्रम था, एक भारी निराशा थी। फिर लोगों ने सोचा कि राजनैतिक व्यवस्था द्वारा समाज में शान्ति की अवस्था, प्रेम, बन्धुत्व और सहयोग की भावना आयेगी, लेकिन फिर भी उसको निराश होना पड़ा। अब योग की बारी आई है। लोग अनुभव करने लगे हैं कि जब तक व्यक्ति के निजी जीवन में आवश्यक परिवर्तन नहीं होगा, जब तक मनुष्य के मूल स्वभाव का रूपान्तरण नहीं हो जायेगा, तब तक दीर्घकाल-पर्यन्त कोई ठोस उपलब्धि नहीं होने वाली है। अत: समाज की दृष्टि से, चिकित्सा की दृष्टि से और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से योग का भविष्य निश्चित रूप से महान् है।
अतीत में जो कुछ होता आ रहा है, वह भविष्य में भी एक से दूसरे रूप में जारी रहेगा। युद्ध और घृणा दोनों ही रहेंगे। दुनिया बदलकर कोई आश्रम नहीं बनने वाली हैं।  अगर इच्छा, भय, असुरक्षा और महत्त्वाकांक्षा न हो तो जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। जिन्दगी सकारात्मक और नकारात्मक, धनात्मक और ऋणात्मक दोनों का मेल है, मिश्रण है, योग हैं। रात और दिन, सुख और दुःख होने ही चाहिए। एक बच्चे के जन्म होने से तुम्हें सुख होता है और एक वृद्ध की मृत्यु से दुःख होता है, रो पड़ते हो। इन दोनों परस्पर विरोधी शक्तियों में सन्तुलन के बिना यह जिन्दगी जीने लायक ही नहीं रह जायेगी। मनुष्य के पास मन को व्यस्त रखने और विकसित करने के लिए समस्याएँ होनी ही चाहिये। समस्या, द्वन्द्व, विरोध, चिन्ता, तनाव न रहें तब मन का खेल कैसे चलेगा? और वह खेलेगा नहीं तो उसके विकासशील होने का सवाल ही कहाँ है? अगर तृष्णा, ईर्ष्या, घृणा या परेशानी न हो तो मन मूढ़ हो जायेगा, मन्द और मूर्ख बन जायेगा।
जीवन की सन्तुलित अन्तर्दृष्टि को मन की शान्ति कहते हैं। पाने और खोने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, वह तो जीवन में हर चीज की समझदारी से सम्बन्धित है। बाहरी जीवन उतार-चढ़ाव से परिपूर्ण होता है और यह एक कमजोर आदमी के लिये थकावट का कारण है, लेकिन शक्तिशाली व्यक्ति के लिये जीवन का हर चढ़ाव एक खुशी है और हर उतार एक खेल है। शरीर के एक स्तर पर कुछ विशेष हार्मोन स्रावित होते हैं जो अशान्ति पैदा करते हैं। इनमें एड्रिनलिन, टेस्टोस्टेरॉन नामक हार्मोन सबसे अधिक विघ्नकारक हैं। यदि इनके प्रवाहों को ठीक से नियंत्रित कर लिया जाये तो अशान्ति उत्पन्न करने वाले आरंभिक शारीरिक उपद्रवों को दूर किया जा सकता है। आसन, प्राणायाम और ध्यान के प्रतिदिन नियमित अभ्यास से हार्मोन के स्त्रावों में नियंत्रण आयेगा, मानसिक और प्राणिक शक्तियों में एक स्वाभाविक संतुलन होगा और उद्विग्नता जैसी समस्याएँ उत्पन्न नहीं होंगी।
साधारण तौर पर अशान्ति का कारण है अतिशय सोचना और इच्छा करना और यह इस बात का सूचक है कि तुम्हारा दिमाग काबू के बाहर हो गया है। इस स्थूल शरीर में दो प्रकार की शक्तियाँ हैं। एक को कहते हैं मानसिक शक्ति और दूसरी को प्राणिक शक्ति। जब तुम बेचैनी का अनुभव करते हो तब समझना कि तुम्हारी मानसिक शक्ति ऊँची है और प्राणशक्ति नीची और दोनों में असन्तुलन आ गया है। ज्ञानेन्द्रियाँ बहुत सक्रिय हैं और कर्मेन्द्रियाँ अल्प सक्रिय।

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