May 12, 2024

गुरुपूर्णिमा : गुरु और शिष्य का सम्बन्ध पूर्णतया निष्काम व आध्यात्मिक है जो परस्पर श्रद्धा, समर्पण और उच्च शक्ति पर आधारित है – महेश अग्रवाल

भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र  स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ है- उच्च चेतना के मार्ग में अवरोध पैदा करने वाले अन्धकार को दूर करने वाला; सूक्ष्म अन्धकार को और अशुभ वृत्तियों को नष्ट करने वाला। लेकिन भौतिक दृष्टि से गुरु शब्द का अर्थ है-एक आध्यात्मिक शिक्षक जो आध्यात्मिक जीवन के विषय में मार्गदर्शन देता है।
योग गुरु अग्रवाल ने गुरु-शिष्य के सम्बन्ध के बारे में बताया कि जीवन की विविध वस्तुओं को समझने के लिए मनुष्य ने विभिन्न तरीकों से अपने आपको अभिव्यक्त किया है। भक्ति, करुणा, सरलता आदि श्रेष्ठ मानवीय गुणों की अनुभूति के लिए उसने स्वयं को कई रिश्तों से जोड़ रखा है; जैसे-पिता और पुत्र, पति और पत्नी, भाई और बहन, आदि। भक्ति, प्रेम और दया के विविध रूपों को समझते हुए भी उसने अनुभव किया कि अपनी पूर्णता के लिए उसे कुछ और चाहिए। इसलिए सन्त-महात्माओं ने दो व्यक्तियों के बीच एक भवातीत संबंध को प्रकट किया और वह है- गुरु और शिष्य का सम्बन्ध। यह सम्बन्ध इन्द्रियों, भावनाओं और मन की सीमाओं के भीतर नहीं है। जिस प्रकार पति-पत्नी अपनी भावनाओं का परस्पर आदान प्रदान करते हैं, उसी प्रकार गुरु भी शिष्य के साथ अपने ज्ञान, प्रेम और प्रकाश का आदान-प्रदान करता है।

आध्यात्मिक शब्दकोश में शिष्य को चेतना या दीक्षा-पुत्र भी कहते हैं। अध्यात्म के आचार्य को गुरु कहा गया है। जिस प्रकार सूर्य व चन्द्र उदित होकर दिशाओं के समस्त अंधकार का विनाश करते हैं, उसी प्रकार गुरु भी शिष्य के जीवन में अवतरित होकर उसकी प्रसुप्त प्रतिभा को जाग्रत और प्रकाशित करता है। यह सत्य सदा याद रखना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयमेव प्रकाश स्वरूप है, दिव्य है। अंधकार और अज्ञान दोनों ही भ्रम हैं। जैसे एक विक्षिप्त व्यक्ति विचित्र व्यवहार करने लगता है, उसी प्रकार मायावश हर आदमी पागलपन करता आ रहा है। फलतः हमने अपनी महानता का ज्ञान खो दिया है। हममें से प्रत्येक के भीतर असीम अंतर्शक्ति है, जिसके सम्बन्ध में हम अनजान बने हुए हैं।
जैसे हनुमान् को अपनी महाशक्ति का स्मरण नहीं था और राम ने प्रत्यक्ष होकर उन्हें उनके आश्चर्यजनक कार्यों की याद दिलाई। उसी प्रकार गुरु शिष्य को बोध देता है कि तुम मात्र हड्डी और माँस के पुतले नहीं हो। इस स्थूल शरीर के पीछे, इन सम्पूर्ण न्यूनताओं, अविद्या पूर्ण विचारों और कार्यों के पीछे चेतना शक्ति है, चैतन्य आत्मा है और वह शक्ति है- प्रकाश, जो हर मनुष्य के जीवन में विद्यमान है।

गुरु और शिष्य के बीच का सम्बन्ध विशिष्ट होता है। यह सम्बन्ध कथनों, परिभाषाओं एवं व्याख्याओं से परे है। यह सम्बन्ध प्रेम, स्नेह और सुरक्षा का है, लेकिन वह इन सब से भी ऊपर और परे हैं। मनुष्य रूप में दोनों ही दो शरीरधारी हैं; किन्तु गुरु-शिष्य सम्बन्ध का दैहिक, भावनात्मक अथवा ऐन्द्रिक प्रभावों से कोई मतलब नहीं रहता। जहाँ पर शरीर, मन और इन्द्रिय समूह की कोई गति नहीं होती, उस विशिष्ट चेतना स्तर पर ये दोनों परस्पर दिव्य अलौकिक संभाषण करते रहते हैं। क्या आध्यात्मिक विकास में गुरु की सचमुच आवश्यकता होती है? यह प्रश्न सभी युगों में उठाया गया है। कई लोग सोचते हैं कि गुरु जरूरी नहीं है, जबकि अन्य बहुत लोगों का विश्वास है कि गुरु नितान्त आवश्यक हैं। वास्तव में मूल गुरु और भगवान अपने अन्दर ही हैं, लेकिन उन्हें देख और समझ पाना बहुत कठिन है। इसलिए अपने बाहर उनकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की जरूरत होती है। इसी कारण अधिकांश अध्यात्म-साधकों के गुरु शरीर-रूप में होते हैं। इसे दूसरे ढंग से भी कहेंगे। व्यक्ति के अन्दर छिपी हुई दिव्यता का विस्फोट कराने के लिए एक बाहरी विस्फोटक लगाना पड़ता है और वह प्रत्यक्ष प्रकट और प्रचंड विस्फोटक है-गुरु।
गुरु एवं भगवान् ही क्यों, माता, पिता, भाई, पति, पुत्र ये सब भी बाहर नहीं, बल्कि तुम्हारे अपने अन्दर ही हैं। वे हमारी भावनाओं के विभिन्न स्वरूप हैं। उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए हमें बाह्य प्रतीक के रूप में माँ, बाप, भाई, पति, पुत्र और शायद शत्रु की भी जरूरत होती है। हाँ, क्योंकि दुश्मनी भी मनुष्य में एक भावनात्मक माध्यम है, एक प्रवाह है।
गुरु या भगवान के साथ सम्बन्ध-सूत्र में बँधे रहने में भी एक तरह की विशेष भावना का अनुभव होता है।  भले ही मनुष्य के अन्दर सभी भावनाएँ छिपी हुई हैं, लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष प्रकट करने के लिए उसे बाहरी रूप, आकार या स्वरूप की जरूरत होगी ही। इसलिए उसे स्वयं के अलावा माँ, बाप, स्त्री, भाई, बहन, बच्चे और गुरु या भगवान की जरूरत तब तक है, जबतक कि वह अपने में ही अन्तर्निहित प्रत्येक वस्तु को अनुभव से न जान ले। एक बार अपने आन्तरिक गुरु से संपर्क हो जाने के बाद साधक स्वयं आगे बढ़ता जाता है, तब बाहरी गुरु की आवश्यकता नहीं रह जाती।
  सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य कोशिश में लगा हुआ है कि बाह्य जीवन से निवृत्त होकर वह अपने अंदर झाँके, आन्तरिक जीवन की गरिमा का अनुभव करे। लेकिन उसे उसकी विधि मालूम नहीं है। कई बार उसने अंदर जाने का ठीक रास्ता खोजा, लेकिन हर बार वह असफल हुआ। फलस्वरूप, उसने निश्चय किया कि आन्तरिक चेतना के लिए उचित मार्गदर्शन की आवश्कता होती है। अतः जिस अनुभवी साधक ने स्वयं अपने मन के गहरे स्तरों का अन्वेषण कर लिया है, वही दिशा निर्देशक हो सकता है। अतः रास्ता सिर्फ वही बता सकता है और वह अनुभवी साधक और मार्गदर्शक ही गुरु होता है। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध मुख्यतः गुरु पर निर्भर रहता है। शिष्य के विकास का निश्चय तो उसे ही करना होता है। कुछ शिष्य गुरु को मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं, कुछ मित्र भाव से तथा कुछ प्रेरक या भगवान के रूप में देखते हैं।

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