April 26, 2024

सोशल मीडिया के उपयोग-दुरुपयोग के बीच जन्मती सूचना सभ्यता

आलेख : संध्या शैली/ दो दिन पहले – 12 फरवरी को –  दुनियां ने उस महान वैज्ञानिक चार्ल्स डारविन की जयंती मनायी, जिसने मानव के विकास की प्रक्रिया को समझ कर बताया था कि किस तरह दुनियां में प्राणियों की उत्पत्ति और विकास हुआ। इस विकास क्रम में दुनियां के अलग-अलग हिस्सों में मानवता अलग-अलग तरीके से विकसित हुयी है। यद्यपि सभ्यता का विकास मशीनी क्रांति और पूंजीवाद के विकास के साथ और अधिक तेजी के साथ हुआ और मानवीयता, मानवीय अधिकार, मानवीय स्वतंत्रता, जनतंत्र जैसे शब्द भी ईज़ाद हुये। लेकिन पूंजीवाद जब इन तमाम शब्दों को वास्तविकता में उतारने वाले समाजवाद की धमक से थर्राया और बाज़ार का मुनाफा कम होने लगा, तो उसने समाज में व्याप्त पुरातनपंथी नस्लवादी विचारों का सहारा लेकर अलग-अलग देशों में तानाशाह राष्ट्रवादी आइकाॅन बनाने मे मदद करनी शुरू कर दी। मुसोलिनी, हिटलर और जापान का तोजो बीसवीं सदी के पहले पचास सालों में पनपे ऐसे ही तानाशाह थे। इन्होने अपने-अपने देशों में ऐसा माहोैल पैदा किया, जिससे लोग इन शब्दों का अपने-अपने तरीके से मतलब निकाल कर आपसी मतभेदों में उलझे रहें। दुनियां को एक भयानक युद्ध की त्रासदी झेलनी पड़ी और पूंजीवादी मुनाफा फिर बढने लगा।
बीसवीं सदी यानि आज की दुनियां में एक बार फिर से वही हालत पैदा हो गये है। अलग-अलग देशों ने अपने-अपने ‘‘लोकप्रिय’’ (!) तानाशाह खड़े कर लिये हैं। अगर हम इतिहास पढ़ें और उनकी और इनकी तुलना करें, तो पायेंगे कि ये वे सारे काम कर रहे हैं, जो वे उस वक्त करते रहे। इतिहास को बदलने की साजिशें और लोगों के दिमागों को विषैला करने की साजिशें इसमें सबसे महत्वपूर्ण थीं और हैं। इटली, जर्मनी और जापान –  तीनों ही देशों मे तानाशाहों ने किताबों को जलाने का हुक्म फरमाया था, क्योंकि किताबें दिमागों को साफ करती थीं। और इस वक्त किताबों को जलाने  के साथ-साथ लिखें हुये को बदलने की साजिश रची जा रही है। हिंदुस्तान इसका सबसे बड़ा और ज्वलंत उदाहरण है। इसके लिये उपयोग में लायी जा रही है ‘‘सोशल मीडिया’’!!
सोशल मीडिया एक ऐसी दुधारी छुरी है, जिसे जनता अपने फायदे में और तानाशाह अपने फायदे मे इस्तेमाल कर सकता है। यह सही है कि किताबों का कोई विकल्प नहीं। लेकिन डिजिटलाइजेशन की इस दुनियां में सोशल मीडिया के तानाशाह द्वारा इस्तेमाल करने को लेकर रोने के बजाये जनता को अपना सोशल मीडिया मजबूत करना होगा। हिटलर के गोयबल्सी प्रचारतंत्र ने जर्मनी में लोगों के दिमागों में यहूदियों के बारे में जो झूठ भरे, वे उस वक्त जर्मनी की जनता के सिर पर चढ कर बोले और करीब 20 लाख यहूदियों की हत्या तमाम कंसंट्रेशन केैंप बनाकर कर दी गयीं। आज हमारे यहां पर भी इस स्थिति को लाने की तेजी से कोशिश हो रही है, क्योंकि अब बढती बेरोजगारी, भुखमरी और बदहाली से जनता को तानाशाही, आर्थिक नीतियों की पहचान होने लगी है। सोशल मीडिया का उपयोग अब इसलिये भी जरूरी है, क्योंकि जनता तक खबर पहुंचाने वाले तमाम मीडिया घराने आरएसएस निंयत्रित सरकार के दरबारी पूंजीपतियों के कब्जे में हैं और वे जनता तक खबरें नहीं, विज्ञापन पहुंचा रहे हैं।
सोशल मीडिया का उपयोग वामपंथियों और जनांदोलनों को इसलिये भी करना चाहिये, क्योंकि आज दुनियां के सबसे अधिक फेसबुक चलाने वाले 35 करोड़ हिंदुस्तान में हैं। इसके अलावा हिंदुस्तान में 93 करोड लोगों के पास इंटरनेट वाले मोबाइल फोन हैं। यदि विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्मो के हिसाब से इन उपयोगकर्ताओं का विभाजन किया जाये, तो सबसे अधिक 86 प्रतिशत यू-ट्यूब देखते हैं, 76 प्रतिशत फेसबुक और 75 प्रतिशत व्हाट्सअप का उपयोग करते हैं। इनमें भी यह समझना आसान है कि आज के हिटलरों और गोयबल्सों को जनता को पुस्तकें जलाने का आदेश देने की जरूरत क्यों नहीं है। इस दुधारी छुरी को जनता अपने तरीके से इस्तेमाल करना भी सीख रही है। वेबन्यूज चैनल, चुटीले और तानाशाह की असलियत दिखाने वाले खबरिया चैनल, पुष्पा जिज्जी, भगतराम, उत्तर प्रदेश के चुनाव के समय युवा नेहा सिंह राठौर और यादव के युवाओं की चिंताओं और तकलीफों को उजागर करने वाले वीडियो के अलावा समय-समय पर जो खबरें बाहर नहीं आ पाती हैं, उन्हे उसी वक्त वीडियो उतार कर यू-ट्यूब डालने की युवाओं की पहल भी जारी है। इसका उपयोग तेज करना और इसी माध्यम के द्वारा जनता के दिमागों को विषैला करने के प्रयासों को मिटाना जरूरी है। लेकिन इसके साथ-साथ किताबों को पढने का एक नया अभियान भी इस देश के युवाओं को चलाना होगा, क्योकि किताबों का विकल्प व्हाट्सएप युनिवर्सिटी हो ही नहीं सकती।
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, व्हाटस अप युनिवर्सिटी जिस तरह का जहरीला प्रचार कर रही है, उसके उदाहरण सुल्ली डील्स और बुल्ली बाई एप हैं। यह बुल्लीबाई एप्प और सुल्ली डील्स का विषाक्त कूड़ा भी ला रही है, व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी के जरिये नफरत, घृणा, अज्ञान और विवेकहीनता का प्रसार भी कर रही है। जहरीला उन्माद फैलाकर संभावनावान पीढ़ी का आज और आगामी कल बर्बाद भी कर रही है। बुल्लीवाई एप और सुल्ली डील्स इन दोनों घिनौने एप्प्स के मामले में अभी तक पकडे गए आरोपियों में उत्तराखंड की श्वेता सिंह सिर्फ 18 वर्ष की हैं। उत्तराखंड का ही मयंक रावत और बैंगलोर से पकड़ा गया बिहार का इंजीनियरिंग का छात्र विशाल कुमार झा दोनों 21 वर्ष के हैं। इस एप्प को बनाने वाले असम के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ने वाले जिस छात्र नीरज बिश्नोई को गिरफ्तार किया गया है, वह भी सिर्फ 21 वर्ष का युवा है। जिस ओंकारेश्वर ठाकुर को सुल्ली डील्स में धरा गया है, उसकी उम्र भी सिर्फ 26 साल है। श्वेता सिंह तो खुद एक युवती हैं, जिनके बारे में खबर है कि हिरासत में लिए जाने के बाद भी उनके मन में कोई मलाल या प्रायश्चित का भाव नहीं है।
श्वेता सिंह और इन संभावनाओं से भरे तकनीकी योग्यता वाले युवाओं को  इतना विषाक्त किसने बना दिया कि एक महिला होने के बावजूद वे महिलाओं की ही नीलामी करने और उनके बारे में अश्लीलता की हद तक बेहूदा प्रपंच रचने में जुट गयी?  क्या यह नयी सूचना सभ्यता का प्रतीक है? यह सूचना सभ्यता दरअसल उस गोयबल्सी प्रचार का नया अवतार हेै, जिसने जर्मनी की जनता और वहां युवाओं के दिमागों को इतना विषैला बना दिया था कि वे अपने पड़ोसी, अपने मित्र, अपने प्रोफेसर यहूदी को जान लेने और कंसंटेशन कैंप मे भेज कर अमानवीय यातनायें देने के लिये तैयार हो गये थे। जैसे पूंजीवाद अपने मुनाफे को बढाने के लिये उस तरह की जनता को तैयार करता है, वैसे ही फासिस्ट तानाशाह अपने शासन को चलाने के लिये उस शासन को लोकप्रिय समझने वाली जनता को तैयार करता है। इस लोकप्रियता के झूठे मकड़ी के जाले से निकलना और सचाई के उजाले में देश को ले जाना ही असली सूचना सूभ्यता है।
(लेखिका अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की केंद्रीय कार्यकारिणी सदस्या हैं।)

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