May 10, 2024

माँ दिवस – माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं : योग गुरु महेश अग्रवाल

भोपाल. आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के संचालक योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि हर साल मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है. इस बार मदर्स डे आज यानी 8 मई को मनाया जा रहा है।बच्चे चाहे जितने भी बड़े हो जाएं लेकिन मां के लिए बच्चे ही रहते हैं। मां और बच्चे का रिश्ता बेहद खास होता है। मां के समर्पण और प्रेम के प्रति आभार व्य​क्त करने के लिए मदर्स डे मनाया जाता है।
शिशु को गर्भ में धारण करने वाली शाश्वत माता अनन्त काल से उर्वरता, प्रचुरता और उत्पादकता की प्रतिरूप रही है तथा गर्भावस्था सृजनात्मक चेतना एवं आशावादिता का मौलिक प्रतीक है। यद्यपि गर्भावस्था एक सामान्य स्थिति है; फिर भी यह अपने आप में एक सम्पूर्णता का अनुभव है। यह एक विशिष्ट अवस्था है। शरीर और मन की अंतरंगता का यह प्रभावशाली उदाहरण है। यह एक ऐसी अवस्था है जब स्त्री के अस्तित्व के विभिन्न आयामों के बीच समस्वरता का होना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। योग के अभ्यास माता के साथ शिशु के शारीरिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक विकास को संयोजित करते हुए शरीर और मन को सर्वोत्तम स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।
गर्भधारण का विचार करना : गर्भधारण के पूर्व योग का नियमित अभ्यास गर्भावस्था के लिए आदर्श पृष्ठभूमि है। भावी माता आसनों के अभ्यास के द्वारा अच्छे समन्वय सहित लचीलापन और सुनम्यता प्राप्त कर लेती है। तब प्राणायाम दो जीवों के लिए पर्याप्त प्राणशक्ति से परिपूर्ण करना सुनिश्चित करता है और ध्यान मातृत्व से जुड़ी परम्पराओं के अनुरूप स्वच्छता का विकास करता है।
योग का अभ्यास एक असाधारण आध्यात्मिक क्षमताओं वाले शिशु का आतिथेय करने की दृष्टि से माता-पिता दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण होगा। यह सम्भव है कि शिशु आंशिक या पूर्णरूपेण जाग्रत कुण्डलिनी के साथ उत्पन्न हो। इस प्रकार के व्यक्ति जन्म से ही आध्यात्मिक रूप से विकसित होते हैं और मानवता के प्रति उनका महान् योगदान हो सकता है। इस प्रकार के बच्चे बिरले ही होते हैं और बिरले ही होते हैं वे माता-पिता जो इस प्रकार के बच्चों को इस जगत् में लाते हैं, फिर भी हमें यह कभी भूलना नहीं है कि उसकी सम्भावना तो है ही। प्रत्येक बच्चे का गर्भ में प्रतिरोपण यदि माता-पिता की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर हो तो यह अभिभूत करने वाला तथ्य होगा, क्योंकि उन बच्चों की चेतना का गठन एवं पोषण माता-पिता के आध्यात्मिक तत्त्वों से होगा। योग गुरु अग्रवाल ने बताया कि गर्भावस्था में योग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो सकता है,* यहाँ तक कि नये लोगों के लिए भी, क्योंकि वे पायेंगे कि इनमें से अधिकतर अभ्यास उनकी क्षमताओं की सीमा के अन्दर हैं। सफल गर्भावस्था एवं प्रसूति के लिए निम्नलिखित क्षेत्रों के विकास पर बल दिया जाना चाहिए –
उदर की मांसपेशियाँ : उदर क्षेत्र के सबल रहने पर बच्चे को उचित विकास के साथ उन्हें कुशलतापूर्वक धारण किया जा सकेगा। प्रसूति के क्रम में बच्चे को गर्भाशय से बाहर निकालने में इन मांसपेशियों का सबसे अधिक महत्त्व होता है। इस क्षेत्र के लिए सुप्त वज्रासन, शशांकासन, उष्ट्रासन, हंसासन, मत्स्यासन एवं शक्तिबन्ध श्रृंखला के आसन महत्त्वपूर्ण हैं।
मेरुदण्ड : स्नायुतन्त्र की उपयुक्त कार्यशीलता एवं सामान्य लचीलेपन के लिए सबल और स्वस्थ मेरुदण्ड का होना अनिवार्य है। गर्भावस्था
में बच्चे के अतिरिक्त भार के कारण प्राय: कन्धों में झुकाव आ जाता है जिसे एक सबल मेरुदण्ड रोक सकता है। इसके लिए सर्वाधिक अनुमोदित आसन हैं – सुप्तवज्रासन, मार्जारी आसन, व्याघ्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन एवं सूर्य नमस्कार।
पीठ की मांसपेशियाँ :  बच्चे के अतिरिक्त भार से पीठ की मांसपेशियों में भी बहुत तनाव उत्पन्न होता है। इसलिए इन मांसपेशियों के सशक्त होने से भी लाभ होगा। भुजंगासन, पश्चिमोत्तानासन, हलासन, सर्वांगासन, शशांकासन एवं सुप्त वज्रासन इसके लिए उपयुक्त रहेंगे।
श्रोणि प्रदेश (पेल्विस) : तनावमुक्त और लचीला श्रोणि प्रदेश प्रसूति को सुगम बना देता है। मार्जारी आसन, शशांकासन, व्याघ्रासन, मत्स्यासन, पालथी में बैठकर किये जाने वाले सभी आसन, सिद्ध योनि आसन तथा इसी प्रकार के अन्य आसन श्रोणि के लिए उपयोगी हैं।
यौगिक आसनों का सन्तुलित कार्यक्रम इस मर्मस्थलीय क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण स्थलों के क्रमिक विकास के लिए उपयुक्त होगा।
एक दीक्षा : हर बार जब एक स्त्री योग की सहायता से बच्चे को जन्म देती है तो वह अपने शरीर, मन तथा आत्मा की क्षमताओं को जीवन की मौलिक शक्तियों तथा चेतना के व्यष्टि एवं समष्टि रूपों के साथ संयुक्त कर देती है। जन्म होना बच्चे के लिए प्रारम्भिक दीक्षा के समान है, और यह माता के लिए अपने आध्यात्मिक नवीनीकरण का अवसर है, इन कठिन क्षणों में अपनी क्षमताओं का स्वाभाविक उत्कर्ष ब्रह्माण्डीय घनिष्ठता के द्वार खोल देता है। भारतीय संस्कृति मातृसत्तात्मक हैं। मातृसत्तात्मक धर्म अत्यन्त उदार एवं सुनम्य हैं। उनमें दूसरों के प्रति अत्यधिक सहानुभूति एवं करुणा होती है जो मूलतः स्त्री स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती है। मातृसत्तात्मक धर्मों ने जीवन को अनेक प्रकार से सौन्दर्य प्रदान किया है, योग, तन्त्र, ललित कलाओं – संगीत, नृत्य, चित्रकारी इत्यादि के माध्यम से।

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